उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 6)

कक्षा तीन उत्तीर्ण करने के बाद मैं कक्षा चार में आया जहाँ मेरे अध्यापक हुए पचावर गाँव के निवासी श्री चरण सिंह जी, जिन्हें सभी ‘मुंशी जी’ कहकर पुकारते थे। वे बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे और गाँव-इलाके में बहुत लोकप्रिय थे। सांस्कृतिक गतिविधियों में उनकी रुचि हालांकि कम थी, लेकिन वे पढ़ाते बहुत अच्छा थे। कई बुद्धू लड़के उनकी कक्षा में आते ही काफी कुछ सीख जाते थे। लोग मजाक में कहा करते थे कि उनकी कक्षा में आते ही रेंगने वाला लड़का चलने लग जाता है और चलने वाला दौड़ने।

कक्षा चार में मेरी सांस्कृतिक गतिविधियाँ प्रायः शून्य रहीं। मुंशी जी का ज्यादा जोर नाटकों और गानों के बजाय बोलने पर था। मुझे याद है कि एक बार बाल सभा में मुझे सफाई पर बोलने के लिए कहा गया था। मैं सफलतापूर्वक बोला भी, लेकिन मजेदार बात यह थी कि मैं स्वयं अपनी सफाई के प्रति काफी लापरवाह था। मेरे सारे कपड़े और हाथ-पैर स्याही से रंगे रहते थे और खेलने-कूदने से धूल में काफी गन्दा हो जाता था। सफाई के प्रति मेरी लापरवाही आज भी बनी हुई है।

कक्षा चार के दौरान एक बार मैं जान-बूझकर प्रातःकालीन प्रार्थना बोलने नहीं गया। वह घटना इस प्रकार थी। एक बार मैं अपने मामाजी की लड़की की शादी में माताजी के साथ आगरा चला गया। तीन दिन बाद जब मैं लौटा और विद्यालय गया तो हमारे प्रधानाध्यापक श्री लक्ष्मी नारायण शर्मा ने जाने क्या सोचकर मुझसे कहा कि तुम्हारा नाम कट गया है, क्योंकि कोई तीन दिन तक बिना सूचना के गैर हाजिर रहे, तो उसका नाम कट जाता है। मैंने तर्क किया कि तीन दिन में नाम काटने का कोई नियम नहीं है, लेकिन उन्होंने कहा कि है। मैं सदा से ही स्वाभिमानी रहा हूँ मुझे लगा कि मेरे स्वाभिमान पर चोट की जा रही है, अतः मैंने कह दिया कि अब मैं इस स्कूल में नहीं पढ़ूँगा बल्कि आगरा में ही पढूँगा। प्रधानाध्यापक जी ने मुझसे कहा कि पहले मैं प्रार्थना बोलूँ, बाद में बात करेंगे, लेकिन उस समय मेरा विवेक नष्ट हो गया था, अतः मैं प्रार्थना बोलने नहीं गया और कक्षा में बैठा-बैठा रोता रहा। मजबूरन उन्होंने एक अन्य लड़के को टोली में बुलाकर प्रार्थना बुलवायी।

प्रार्थना के बाद वे मुझसे पूछने लगे कि मैं क्यों रो रहा हूँ। मैंने बताया कि मैं उनसे बहुत नाराज हूँ और अब मैं यहाँ नहीं पढ़ूँगा। उन्होंने मुझे काफी समझाया, लेकिन मेरी बुद्धि में कोई बात नहीं समायी। तब उन्होंने मेरे पिताजी को बुलवाया। पिताजी ने डाँटकर मुझसे पूछा कि मैं क्यों रो रहा हूँ और इनसे क्यों नाराज हूँ। मैंने बताया कि तीन दिन गैर हाजिर रहने पर ही मेरा नाम काट दिया गया है, अतः यहाँ कैसे पढ़ सकता हूँ। तब मुंशी जी ने मुझे कक्षा का हाजिरी रजिस्टर लाकर दिखाया कि देखो तीन दिन के बजाय केवल एक दिन की अनुपस्थिति लगाई गयी है और नाम काटने का तो सवाल ही नहीं उठता। तब मैं बहुत शर्मिन्दा हुआ। पिताजी ने मुझमें एक थप्पड़ भी मारा और प्रधानाध्यापकजी से पैर छूकर माफी माँगने के लिए कहा। मैं मुँह से तो कुछ नहीं बोला, लेकिन पैर छूकर माफी माँग ली।

जब मैं खाना खाने की छुट्टी में घर लौटा, तब तक माताजी को भी सारी बात मालूम पड़ चुकी थी। उन्होंने भी मुझसे कहा कि पहले मैं जाकर पण्डित जी से माफी मांगू, तब खाना मिलेगा। तभी किसी ने बताया कि यह पहले ही माफी माँग चुका है, तब उन्होंने मुझे खाना दिया। मैं इसे प्रधानाध्यापक जी की महानता ही कहूँगा कि उन्होंने मुझे न केवल माफ कर दिया, बल्कि आगे चलकर मुझे पहले से भी ज्यादा प्यार दिया, जिसका बदला मैं कभी नहीं चुका सकता।

जब मैं कक्षा चार में ही था, हमारे विद्यालय में एक नये अध्यापक आये जिनका नाम था श्री जगदीश प्रसाद गुप्ता। हम सब उन्हें गुप्ता जी कहकर पुकारते थे, वे नये पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़े हुए थे अतः अन्य विषयों के साथ अंग्रेजी और बीजगणित का भी उन्हें ज्ञान था। उससे ज्यादा उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्रामों के बारे में विशेष ज्ञान था मैं और देवेन्द्र प्रायः स्वतंत्रता संग्रामों पर उनसे प्रश्न पूछा करते थे। हम जिज्ञासु तो थे ही, अतः अपनी बुद्धि के अनुसार कठिन से कठिन प्रश्न पूछा करते थे। क्योंकि हम सोचते थे कि अध्यापक को तो सारी बातें मालूम होती है और होनी चाहिए, लेकिन एक दिन कोई प्रश्न पूछने पर गुप्ता जी ने बताया कि कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं होता, सबके ज्ञान की कोई न कोई सीमा होती है। बात हमारी समझ में आ गयी और हमने फालतू प्रश्न पूछना बन्द कर दिया।

उन दिनों हमें ट्यूबवैैलों पर नहाने का काफी शौक था। कुएँ पर बाल्टी से पानी खींच कर नहाना हमें पसन्द नहीं आता था। इसीलिए मैं कभी-कभी नहाना गोल कर जाता था। हम इतने छोटे भी नहीं रह गये थे कि माता जी नहला देतीं। अतः इसका हल हमने निकाला ट्यूबवैलों या रहटों पर नहाने का। हमारे घर से थोड़ी थोड़ी दूर पर कई ट्यूबवैल और दो रहट थे उनमें से प्रायः प्रतिदिन कोई न कोई चलता रहता था। बस हम अपने कपड़े आदि लेकर दौड़ जाते थे और नहाते थे। टयूवबैलों की कुण्डी (टंकी) में हम देर तक नहाते रहते थे। लेकिन एक बार मैं एक कुण्डी में डूबते-डूबते बचा। वह घटना इस प्रकार है।

मैं एक दिन ऐसी कुण्डी में नहा रहा था जिसका पानी हमारी गर्दन तक आता था उसमें मैं बहुत बार नहा चुका था। उस कुण्डी में काफी काई जमा हो गयी थी जिससे पैर रपट जाता था। मेरे संगी-साथी नहाकर निकल चुके थे और थोड़ी दूर पर अपने कपड़े पहन रहे थे। कुण्डी में उस समय मैं बिलकुल अकेला था। उस दिन अचानक मेरा पैर रपट गया और डूबने को हुआ लेकिन तुरन्त ही मैं संभाल कर उठा लेकिन मेरे दुर्भाग्य से मैं पानी की मोटी धार के नीचे आ गया। उसके जोर से मैं फिर नीचे चला गया। दूसरी बार मैंने उठने की कोशिश की, फिर धार के नीचे आ गया। तीसरी बार भी ऐसा ही हुआ। मेरी साँस रूकने को हो रही थी और मैं सोच रहा था कि आज नहीं बच सकूँगा। तभी मैंने चैथी बार और जोर लगाकर उठने की कोशिश की तथा धार से कुछ हट भी गया। सौभाग्य से इस बार मैं धार के नीचे नहीं आया और मैंने कुण्डी की दीवार (रेलिंग) पकड़ ली, तब मेरी जान में जान आयी।

अगर चौथी बार भी मेरे हाथ में रेलिंग न आती तो यह निश्चित था कि मैं पाँचवी बार कोशिश नहीं कर पाता और मेरी इह लीला वहीं समाप्त हो गयी होती। लेकिन कहावत है कि ‘हिम्मते मर्दां, मददे खुदा’, मैंने हिम्मत नहीं हारी, इसलिए शायद ईश्वर ने भी मेरी मदद की। शायद उसे मुझसे कुछ और काम लेना था, नहीं तो आज यह सब लिखने के लिए मैं जीवित नहीं रहता। मैंने इस घटना का जिक्र किसी से भी नहीं किया था। माताजी से भी नहीं क्योंकि मैं सोचता था कि वह बेकार में रोयेगी। इस घटना के बाद मैं ट्यूबवैलों पर नहाते समय काफी सावधान रहने लगा था।

सदा की भांति कक्षा चार में भी मैं पूरी कक्षा में प्रथम रहा। कक्षा पाँच में हमें प्रधानाध्यापक श्री लक्ष्मी नारायण शर्मा, जिन्हें हम पण्डितजी कहते थे, पढ़ाते थे। पण्डित जी एक विलक्षण व्यक्ति थे। हम चारों भाई उनके ही प्रधानाध्यापकत्व में उसी विद्यालय में पढ़े थे। रिटायर होने तक वे उसी विद्यालय में रहे। उनको नाटक आदि कराने में काफी रुचि थी। लगभग प्रत्येक वर्ष वे एक बड़ा नाटक तैयार कराते थे, जिसका मंचन गाँव वालों के सामने होता था। वे हारमोनियम पर भजन, गीत आदि गाने के विशेषज्ञ थे। उनकी आवाज और लहजा अपनी तरह का एक ही था। इसके अलावा वे जादू भी जानते थे। मुझे याद है कि उन्होंने एक बार एक बड़ा नाटक तैयार किया था (शायद कृष्ण-अर्जुन युद्ध) और उसके मंचन के दिन नाटक से पहले कई तरह के जादू दिखाये थे। जिनमें एक जादू था चित्त सोते हुए लड़के को ऊपर उठा देना और फिर नीचे उतार देना। यह काफी विलक्षण जादू था। कम से कम उस दिन तो मुझे ऐसा ही महसूस हुआ।

वे मुझे बहुत प्यार करते थे, गलतियों पर मुझे मामूली सजा देते थे, जबकि उसी तरह की गलती पर दूसरों को ज्यादा सजा मिलती थी। मैं पढ़ने लिखने में तेज था ही, अतः पढ़ाई के पीछे कभी सजा नहीं मिली। सजा मिलती थी दूसरी तरह की गलतियों पर जैसे किताबें-कापी भूल आना या थोड़ी देर के लिए कहकर ज्यादा देर के लिए गायब हो जाना, मारपीट-गाली गलौज करना आदि।

जब मैं कक्षा पाँच में था, एक बार मैंने एक कविता लिखी। वह कुछ राष्ट्रीय भावनाओं से युक्त थी। 2 अक्टूबर के दिन महात्मा गांधी के जन्म दिन पर मैंने वह कविता सुनायी। जब पण्डितजी को पता चला कि वह कविता मैंने स्वयं लिखी है तो मुझे बहुत शाबासी दी और बहुत खुश हुए। जब भी गाँव का कोई आदमी विद्यालय में आता था, तो वे यह जिक्र करना नहीं भूलते थे कि मैंने एक कविता लिखी है। अपनी जिन्दगी की वह पहली स्वरचित कविता अब मुझे याद नहीं है।

कक्षा पाँच की परीक्षा हमारे गांव के पास के एक अन्य गांव जुगसना में होनी थी। जाने से पहले पंडित जी ने विद्यालय में हवन कराया और सबकी सफलता के लिए प्रार्थनाएं की। दो दिन के लिए पूड़ी लड्डूू आदि रखकर और अन्य आवश्यक सामान लेकर हम जुगसना के लिए चल पड़े। जुगसना वहाँ से करीब पांच किलोमीटर दूर है। अतः पैदल ही गये। साथ का सामान सिर पर और हाथ में लालटेन। आराम से चलते-चलते हम शाम को अंधेरा होने से पहले ही जुगसना पहुंच गये। और वहाँ के जूनियर हाईस्कूल में जाकर डेरा जमाया। गर्मी के दिन थे शायद मई का महीना था अतः रात को बाहर ही सोने में कोई मुश्किल नहीं थी। कुछ देर तक पढ़ने के बाद अर्थात पढ़ने का बहाना करने के बाद हम सो गये। दूसरे दिन तथा तीसरे दिन दोपहर तक हमारे पर्चे थे अतः तीसरे दिन पर्चे समाप्त करके हम घर को रवाना हो गये। मेरे एक मित्र निहाल सिंह ने मेरा सामान अपने ही सामान के साथ बांध लिया और सारे सामान को स्वयं सिर पर रखकर लाया। मैं रास्ते भर खाली हाथ हिलाता हुआ आया था।

मुझे उम्मीद थी कि सदा की तरह कक्षा पाँच में भी मैं पूरी कक्षा में प्रथम रहूंगा, लेकिन मेरा अति आत्मविश्वास मुझे धोखा दे गया। मेरा एक सहपाठी रमेश चन्द्र मुझसे कुछ अंक ज्यादा लेकर प्रथम आया। कारण शायद यह था कि मेरा हस्तलेख बहुत खराब था। लापरवाही से कापी पर इधर-उधर स्याही के धब्बे पड़ जाते थे। अतः सही लिखने पर भी इतिहास-भूगोल जैसे विषयों में अच्छे अंक नहीं मिलते थे। अतः इसलिए अपनी जिन्दगी में पहली बार मुझे कक्षा में प्रथम स्थान नहीं मिल पाया।

उस समय तक मैं अपने गांव भर में गणित और पहेलियों के अच्छे जानकार के रूप में मशहूर हो गया था। आस पास के बड़े-बूढ़े लोग प्रायः मेरे पास आते थे और पुराने जमाने की गणित की पहेलियाँ आदि पूछा करते थे, जिनके बारे में उनका ख्याल था कि आजकल के एम.ए. पास भी उन पहेलियों का जबाब नहीं दे सकते। लेकिन वे बहुत चमत्कृत हो जाते थे, जब मैं कुछ देर सोचने के बाद ही उन्हें सही जबाब बता देता था। मुझे उनमें से कई पहेलियां आज भी याद हैं लेकिन बहुत सी भूल गया हूँ। मेरा यह शौक लम्बे समय तक बरकरार रहा और आज भी है।

कक्षा पाँच के बाद मुझे कक्षा छः तथा आगे की कक्षाओं में पढ़ने के लिए घर से करीब एक किलोमीटर दूर जूनियर हाईस्कूल, दघेंटा में जाना था, जो कि एक नहर (बम्बा) के किनारे था। अतः हमने पंडित जी को दक्षिणा देकर अपना स्थानान्तरण प्रमाणपत्र ले लिया।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

2 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 6)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , किओंकि मेरी जिंदगी भी गाँव में गुज़री है इस लिए पड़ कर मुझे अपने गाँव की ही शकल आँखों के सामने आती है . बीस एकड़ हमारी खेती वाली ज़मीन होती थी तो खेतों में आना जाना लगा ही रहता था . दो जगह हमारे खेत थे और दोनों जगह कूएँ थे . एक कुंआं जो एक दरिया के किनारे था उस का पानी बहुत नज़दीक होता था . कुछ लड़के उस में छलांग लगाते थे और कुछ देर बाद हाथ पैर मारते हुए ऊपर आ जाते थे . मेरा हौसला नहीं पड़ता था . कुँए से पानी निकालने के लिए छोटी छोटी बाल्टी लगी होती थी जो एक चेन की शकल में होती थी जिस को पंजाब में टिंड बोलते थे . जब बलद कुँए को चला रहे होते थे तो यह टिंड कुँए से पानी निकालती थी और खाली हो कर दुसरी तरफ से वापिस कुँए में चली जाती थी . धीरे धीरे मैंने भी वोह टिंड को पकड़ कर कुँए के बीच जाना शुरू कर दिया और फिर एक दिन हौसला करके कुँए में छलांग लगा दी और हाथ पैर मारता हुआ ऊपर आ गिया , फिर तो मेरा हौसला बड गिया और रोज़ कुँए में नहाने लगे . अब तो कोई कुआं है ही नहीं , आगे के बच्चे कुआं सिर्फ किताबों में ही देखते हैं . दिलचस्प कहानी .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. जिसको आपके यहाँ ‘टिंड’ कहते हैं, उसी को हमारे यहाँ ‘रहट’ कहते हैं. हमारे बचपन में गाँव के पास ही 2 रहट थे. अब ख़त्म हो गए हैं.

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