बुढ़ापा और औलाद
आज की संतान बहुत सब्र की बहुत कमी है जवानी में कदम रखते ही उन्हें बुजुर्गो की तरह सत्ता चाहिए ! वे यह भूल जाते है की यह प्रक्रिया समयानुसार स्वत: चलित होती रहती है और ऊनके बुजुर्ग होने पर उन्हें उसी प्रकार प्राप्त हो जाती है लेकिन उन्हें अपनी अस्मिता खतरे में नजर आतीहै। बाप बेटे में अक्सर व्यक्तित्व की टकराहट ही उनके कलह का कारण बनती है इस टकराहट की तह में है बुजुर्ग पिता के लिए आदर की कमी ! पहले संतान अपने बुजुर्गो का आदर सम्मान करना जानती थी और जहाँ आदर होगा, व्यक्तित्वो की टकराहट का सवाल ही नहीं माँ बाप के हिस्से में बच्चे के जन्म से ही उसकी सेवा करना होता है लेकिन कब तक ? बड़े लाड प्यार से वे बच्चे को पालते है उनके सुखी भविष्य की चिंता करते हूये उन्हें सुरक्षा प्रदान करते है त्याग, स्नेह, जैसे शाश्वत मूल्य विकसित करते हुए वे अपनी संतान को स्वयं कष्ट और आभाव सहकर भी सुखी रखना चाहते है उन्ही माँ बाप को बूढ़े बीमार होने पर अपने लिए अनुपयोगी समझ वे अपने से अलग कर देना चाहते है
उनकी संवेदनहीनता उन्हें इस बात के अहसास से वंचित रखती है के माँ बाप के दिल पर उनके ऐसे व्यवहार से क्या गुजरती है एक और जीवन उनसे उनका सुनहरा कल चीन लेता है रिटायरमेंट बुजूर्गो से उनका मनोबल चीन लेता है उन्हें ऐसे में मॉरल सपोर्ट की आवश्यकता होती है ! चाहे जाने की इच्छा किस में नहीं होती ?
अनावश्यक हो जाने की त्रासदी उनहे मनोवैज्ञानिक रूप से तोड़ कर रख देती है ।माँ तो फिर भी घर गृहस्थी के कार्यों में अपना समय गुजर सकती है परन्तु पिता को व्यस्तता के बाद का खालीपन कचोटने लगता है ! इस पर बेटे बहु का कठोर व्यवहार उन्हें नौकर की तरह प्रताड़ित करना , अपशब्द कहना, उन्हें इंसान तक का दर्जा न देना बहुत चोट पहुचाता है ! उसी शख्स को जो कभी गहर का मुखिया हुआ करता था, मज़बूरी खून के आसूं पाकर भी जीवित रहना सिखा देता है लेकिन इंसान की यह क्रूरता है घूमने फिरने, मनोरंजन की उन्हें जरुरत नहीं , अच्छा कपडा उन पर बुडापे में सजता नहीं,अच्छा खाने की इच्छा होने पर उन्हें चटोरे की संज्ञा दे दी जाती है, बेबी सिटिंग या बड़े बच्चो की चौकीदारी करवाकर बदले में यही कहा जाता है की और अब यही इनका काम और जिम्मेवारी है , हम भी तो इनके खाने पीने और दवाईयों का खर्च उठाते हैं । अगर वो यही बात प्यार और आदर से कहें तो माँ बाप का अच्छा वक्त तो गुजरता ही है वो अपनी औलाद , अपने संस्कारो पर गर्व भी महसूस करते हैं और घर का माहौल खुशनुमा बना रहता है।
हमारी संस्कृति कहती है की माँ बाप के चरणों में स्वर्ग है माँ बाप ईश्वर तुल्य है उनकी सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है माँ बाप के होते ईश्वर की आराधना जरूरी नहीं ! निस्संदेह माँ बाप की सेवा में सच्चा सुख है बास इंसान अपनी नादानी के कारण इसे समझ नहीं पाता ! कहते है हर इंसान की स्मृति उसे कभी न कभी, कही न कही जरुर झकझोरती है उन्हें याद करके भी क्या आज की युवा पीढ़ी का दिल बूढ़े माँ बाप की प्रति पसीजता नहीं ?
आज जो जवान है उन्हें भी कल बूढा होना है, ये बात क्यों भूल जाते है ! माँ बाप को अलग अलग करने वाले बेटे बहु को भी मौका मिलने पर माँ बाप की तरह अलग रहने को कहें तो, क्या यह बात उन्हें मृत्यु से पहले ही मृत्यु की और धकेलकर उन्हें जीते जी मार नहीं देगी !
जिन्होने आप को जन्म दिया. उंगली पकड़ कर चलना सिखाया आज आपका फर्ज है उनका हाथ थामें, यही सच्ची औलाद की पहचान है।
— रमा शर्मा
कोबे, जापान
Thanks
बहुत अच्छा लेख. आजकल की संतानों को माँ बाप का महत्त्व ही पता नहीं. यह आशा करना कि बुढापे में वे आपका ध्यान रखेंगे, कई बार निष्फल सिद्ध होता है. उनको कर्तव्य बोध कराना आवश्यक है.
आभार विजय कुमार जी
रमा जी , हम भी ऐसी ही स्थिति में हैं लेकिन एक बात हम ने शुरू से अनुभव की है कि पिछले बीस पचीस वर्ष में ज़माना इतनी ऊंची छलांग लगा गिया है जितनी सौ वर्ष में भी नहीं लगाईं . इस ज़माने में बच्चों को तो पड़ाव लिखाओ लेकिन अपने लिए भी भविष्य का बंदोबस्त कर के रखो . इस का कारण यह है कि बेटा तो आप का है लेकिन बहु दुसरे घर से आई होती है . जो अच्छी है तो बहुत अच्छा है लेकिन समय और मन बदलते देर नहीं लगती . अगर आप के पास आप की सेविंग है तो बुढापे में जिंदगी कुछ आसान हो जायेगी वर्ना जीना मुश्किल हो सकता है . और एक फाइनल बात , अपनी विल बना कर जरुर रखनी चाहिए .
Thanks Gurmail ji