वुसअत ए मुहब्बत
चुभते हुऐ इंतज़ार के काँटों में गुलाब सा तुम खिले हो
छिटकी हुई यादों की चाँदनी में माहताब सा तुम खिले हो
मेरे गम ए हिज्र का तुम्हें ज़रा भी अनुमान नहीं है
मुझमे ,रेत में जज़्ब लहरों के आब सा तुम मिले हो
हमारी वुसअत ए मुहब्बत तेरी रूह से मेरी रुह तक फैली है
आसमाँ में सितारों सा मेरे ख्यालों ख्वाब का तुम सिलसिले हो
तेरी आँखों के आईने से मेरे अक्स ने यह मुझे बतलाया है
इब्तिदा से अंजाम तक मेरे वजूद मे सबब सा तुम घुले हो
नूर सा जगमगाता हैं दूर दूर तलक मेरी निगाहों में तेरा तसव्वूर
मेरे गमगीन अंधेरों के तप को सुबह के आफताब सा तुम मिले हो
किशोर कुमार खोरेंद्र
(माहताब =चाँद ,गम ए हिज्र=विरह का दुख ,जज़्ब =सोखना ,आब =जल ,वुसअत ए मुहब्बत=प्रेम का विस्तार ,अक्स =परछाई , इब्तिदा=आरंभ ,अंजाम =अंत ,वजूद =अस्तित्व ,सबब = मूल कारण
तसव्वूर=ध्यान ,विचार , गमगीन =दुखी ,आफताब =सूरज )
वाह वाह !
बहुत खूब.