उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 7)

अध्याय-3: अक्ल का पुतला

यादे माज़ी अज़ाब है या रब !
छीन ले मुझसे हाफिजा मेरा ।।

जब मैं कक्षा 5 में ही था, तो मुझसे एक साल आगे पढ़ने वाले लड़कों ने, जो तब तक दूसरे विद्यालय में पहुँच चुके थे, वहाँ के अध्यापकों को पहले ही बता दिया था कि अगले वर्ष यहाँ एक बहुत होशियार (प्रतिभाशाली के लिए गाँव में यही शब्द प्रयुक्त होता है) लड़का आने वाला है। अध्यापकों की प्रतिक्रिया क्या रही, यह तो पता नहीं, लेकिन इस होशियार लड़के का पहले दिन उस विद्यालय में पधारना काफी विलक्षण रहा।

हुआ यह कि विद्यालय खुलने तक मेरे सिर के बाल काफी बढ़ गये थे। अतः पिताजी ने सोचा कि अब इसका मुंडन करा दिया जाय। कई बार बाल कटवाने की सोची गयी लेकिन कभी नाई नहीं मिलता था और कभी कोई और समस्या। आखिर विद्यालय जाने से ठीक एक दिन पहले एक नाई पकड़ में आ ही गया। मुझे उम्मीद थी कि वह सदा की तरह बाल काटने की मशीन से सिर के बाल साफ कर देगा। मैं सिर झुका कर बैठा ही था कि जाने कब नाई ने अपना उस्तरा निकाल लिया और मेरी आशा के विपरीत उसने मशीन के बजाय उस्तरे से मेरे सिर के बीच से कुछ बाल साफ कर दिये। उस्तरे के स्पर्श का ज्ञान होते ही मेरा पारा सातवें आसमान पर। मैं बहुत रोया-धोया मगर बेकार। नाई झूठ ही कहने लगा कि उसके पास मशीन नहीं है। पिताजी ने कहा- अब क्या हो सकता है? सारे बाल उस्तरे से ही साफ कराने होंगे। मजाक में कुछ लोगों ने बाल इसी तरह छोड़ देने की राय भी दी, लेकिन वह और ज्यादा बुरा होता।

मरता क्या न करता? आखिर मुझे सारे बाल उस्तरे से ही साफ कराने पड़े। नाई ने पीछे एक लम्बी चोटी छोड़कर, जो मेरे हिन्दुत्व की पहचान थी, सारा सिर सफाचट कर दिया। अगले दिन मैं अपना टी.सी. (स्थानान्तरण प्रमाण पत्र) लेकर जूनियर हाईस्कूल में पधारा। उस समय मेरी छटा देखने लायक थी। घुटा हुआ सिर और उस पर लम्बी चोटी, बड़े-बड़े बाहर निकले हुए दाँत, छोटा कद, दुबला-पतला शरीर, बुशशर्ट और नेकर, नंगे पैर – यह था मेरा हुलिया। जो भी परिचित या अपरिचित मुझे देखता, एक बार तो हँस ही देता। कुछ मनचले लड़के तो सिर पर टोला (उँगली की हड्डी) मारकर भी भाग जाते थे, यह कहते हुए कि देख लूँ कच्चा है कि पक्का। दाखिले की औपचारिकता पूरी होने के बाद मैं वहीं एक तरफ पेड़ के नीचे जाकर बैठ गया।

उस समय मेरे बड़े भाई श्री गोविन्द स्वरूप कक्षा आठ में थे। उनके दो सहपाठी श्री रतन सिंह उर्फ रतनी और श्री भगत सिंह उर्फ भगती, जो काफी लम्बे थे तथा स्कूल के दादा माने जाते थे, मुझे देखकर काफी हँसे। उन्हें खेलने के लिए एक नया खिलौना जो मिल गया था। उन्होंने मुझे तरह-तरह से तंग करना और मजाक उड़ाना शुरू किया। घुटे सिर के कारण मैं हीनभावना से ग्रस्त था ही, परेशान किये जाने पर मैं रोने लगा। तुरन्त बात अध्यापकों तक पहुँची। एक अध्यापक श्री बल्ले राम जी मुझे तंग करने वाले दोनों लड़कों को प्रधानाध्यापक जी के पास ले गये और बोले- ‘पंडितजी, देखौ, कहाँ तौ जे ऊँट और कहाँ जि बकरी कौ बच्चा। ये ऊँट जायै परेशान कर रए ऐं और जि रोबे लग गयौ ऐ।’ पंडित जी कुछ ऊँचा सुनते थे, अतः यह बात उन्होंने रुक-रुक कर और जरा जोर से कही थी। शीघ्र ही सारे लड़के आस-पास इकट्ठे हो गये थे। पंडित जी की समझ में कुछ आया, कुछ न आया। लेकिन इतना जरूर आ गया होगा कि ये बड़े लड़के इस छोटे बच्चे को परेशान कर रहे हैं। लिहाजा उन्होंने दोनों ऊँटों के कान ऐंठे और डाँटा। बकरी के बच्चे का रोना तब तक कम हो गया था। खैर बात समाप्त हुई और मैं उस दिन तुरन्त घर लौट आया।

इस तरह शुरूआत हुई मेरी पढ़ाई की उस स्कूल में जहाँ मैं आगे चलकर काफी प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुआ। लेकिन यह प्रसिद्धि अनायास ही नहीं आ गयी थी और न इसके लिए मुझे कुछ खास प्रयत्न ही करना पड़ा था। कक्षा में घटी एक घटना के कारण मैं अपने एक अध्यापक की निगाह में पहली बार आया। वह घटना यों है।

हमें विद्यालय में आये मुश्किल से पन्द्रह दिन ही हुए थे। अध्यापक हम सब लड़कों को (लड़कियों को भी) अबोध ही मानते थे, अतः विषय के अलावा तरह-तरह के लैक्चर पिलाया करते थे। उनका मुख्य जोर प्रायः इस बात पर होता था कि पुराने स्कूल की गन्दी आदतें वहीं पर छोड़ आइये। एक बार विज्ञान के अध्यापक श्री राम खिलाड़ी जी हमें कुछ ‘जीवनोपयोगी’ बातें बता रहे थे। बीच में वे बोले- ‘भगवान बुद्ध ने कहा था – जियो और …।’ बोलते हुए उन्होंने कक्षा की तरफ इस आशा में देखा कि कोई इस वाक्य को पूरा करेगा। लेकिन सारे लड़के उनके मुँह की तरफ ताक ही रहे थे कि मैंने वाक्य पूरा कर दिया- ‘…जीने दो।’ तुरन्त ही उनका ध्यान मेरी तरफ गया और आश्चर्य से देखने लगे कि यह घुटे सिर वाला, बड़े-बड़े दाँतों वाला और मरियल सा बच्चा इतनी ऊँची बात कैसे कह सकता है।उनकी जिज्ञासा बढ़ी और कुछ पूछ-ताछ के बाद समझ गये कि कक्षा में कम से कम यह एक लड़का ऐसा है जो मिट्टी का माधो नहीं है।

आप आश्चर्य करेंगे कि मैने यह वाक्य कहाँ से सीख लिया था। इसका रहस्य यह है कि एक बार मैं पिताजी के साथ मथुरा शहर गया था। वहाँ दीवारों पर तरह-तरह की फिल्मों के पोस्टर चिपके ही रहते हैं। अपने जिज्ञासु स्वभाव के कारण मैं उन पोस्टरों पर मोटे-मोटे लिखे हुए शब्दों को पढ़ता रहा था। उन्हीं में ‘जियो और जीने दो’ नामक फिल्म के पोस्टर भी थे। उसी समय पढ़े हुए ये शब्द मेरे दिमाग के किसी कोने में कहीं जम गये होंगे (स्टोर हो गये होंगे), जो कक्षा में उस समय याद आ गये।

स्कूल के अन्य अध्यापकों की निगाह में मैं कैसे आया इसकी कहानी दूसरी है। हुआ यह कि सत्र की शुरुआत में (शायद अगस्त के महीने में), हमारे विद्यालय में छात्रसंघ के पदाधिकारी चुने जाने थे। निश्चित दिन छात्रों की सभा हुई। चुनने का तरीका यह था कि किसी पद के लिए कोई छात्र किसी दूसरे छात्र का नाम उम्मीदवारी के लिए प्रस्तावित करता था और कोई अन्य छात्र उसका अनुमोदन (समर्थन) करता था, तो वह छात्र उस पद के लिए उम्मीदवार मान लिया जाता था। अगर किसी पद के लिए एक से ज्यादा उम्मीदवार होते थे तो हाथ उठाकर वोट दिये जाते थे, अन्यथा एक मात्र उम्मीदवार को निर्विरोध चुन लिया जाता था। इस प्रकार मेरे बड़े भाई श्री गोविन्द स्वरूप निर्विरोध अध्यक्ष चुन लिये गये थे। अब महामंत्री पद का चुनाव होना था। उसके लिए एक छात्र ने श्री चन्द्रभान, जो मेरे भाई के सहपाठी थे, का नाम प्रस्तावित किया और अध्यक्ष चुन लिए गये मेरे भाई ने उनका समर्थन करना चाहा।

इसी बात पर अध्यापकों और छात्रों में विवाद हो गया। अध्यापकों का कहना था कि किसी पद के लिए चुन लिया गया कोई व्यक्ति किसी दूसरे पद के लिए कोई नाम प्रस्तावित या उसका समर्थन नहीं कर सकता, जबकि छात्रों का कहना था कि कर सकता है। यह व्यर्थ का वाद-विवाद मुझे बहुत अप्रिय लग रहा था। उनमे बहस चल ही रही थी कि मैंने पीछे से चिल्ला कर कहा- ‘मैं इसका समर्थन करता हूँ’ और बहस वहीं समाप्त हो गयी। अध्यापकों ने मेरी त्वरित बुद्धि की सराहना की और जिज्ञासा व्यक्त की कि यह कौन है। तब किसी ने बताया कि ‘गोविन्दा कौ भैया ऐ’। तब अध्यापकों ने और भी ज्यादा प्रशंसा की कि दोनों भाई बहुत तेज और बुद्धिमान हैं। इस एक घटना से ही मैं पूरे विद्यालय में प्रसिद्ध हो गया, हालांकि मुझे वहाँ आये मुश्किल से एक-डेढ़ माह ही हुए थे।

आज इतने वर्षो बाद भी मुझे अपने तत्कालीन शिक्षकों की अच्छी तरह याद है। उस समय हमारे प्रधानाध्यापक थे श्री रतीराम शर्मा, जिन्हें हम प्रायः बाबा कहा करते थे। वे काफी बूढ़े थे और जिस साल मैंने कक्षा छः में दाखिला लिया था उसी साल के बाद वे अवकाश प्राप्त करने वाले थे। वे छात्रों, अध्यापकों तथा आसपास के गाँवों में बहुत लोकप्रिय थे और इसी लोकप्रियता के कारण उनकी सेवा अवधि एक वर्ष के लिए बढ़ा दी गयी थी अर्थात् वे तब रिटायर हुए जब मैं कक्षा सात पास कर चुका था।

वे हमारे गाँव से करीब चार कोस दूर एक गाँव ‘कारब’ के निवासी थे। हालांकि वे काफी बूढ़े और कमजोर थे, आँखों से कम दिखाई देता था तथा कानों से भी ऊँचा सुनते थे, लेकिन रोज साइकिल पर आया-जाया करते थे। वे निश्चित समय से पहले ही विद्यालय में पहुँच जाते थे, जब तक कि कोई अन्य अध्यापक नहीं आ पाता था और सबके बाद जाया करते थे। अपनी याद में मैंने उन्हें कभी देरी से आते हुए नहीं देखा।

वे गणित और सामाजिक विषयों के विद्वान थे तथा इन विषयों के अन्य अधिकारी अध्यापक उनसे मदद लिया करते थे। गणित मेरा प्रिय विषय रहा है और मैं गणित में सदा आगे रहा हूँ। अतः स्वभावतः ही वे मुझे बहुत प्यार करते थे। वे प्रायः कहा करते थे कि तुम ही मेरे बेटे हो। उन्होंने एकबार मेरे आत्म विश्वास की बड़ी कड़ी परीक्षा ली थी। उस समय मैं कक्षा 6 में था। एक दिन उन्होंने एक सवाल पूछा। पूरी कक्षा में मेरे सिवा कोई भी उसका उत्तर नहीं दे पाया। सवाल तो मुझे याद नहीं लेकिन उसका उत्तर ‘30’ था। जब मैंने उत्तर बताया ‘30’, तो बाबा ने गुस्से में मेरी तरफ देखा और बुलाया। फिर उन्होंने मेरा हाथ उल्टा पकड़ लिया और हाथ में डस्टर उठा लिया (मारने के लिए) और कहा- ‘गलत जबाब देता है। बता कितना होगा?’ मैंने कहा- ‘साब, 30 ही होगा।’ वे बोले- ‘सही सही बता, नहीं मारता हूँ।’ कहते हुए उन्होंने सचमुच ही डस्टर मेरी उँगलियों में मारना चाहा। मैं भौंचक था, फिर भी मैंने कहा- ‘साहब, इसका जबाब तो ‘30’ ही होगा।’ मेरी दृढ़ता और आत्मविश्वास देखकर उन्होंने डस्टर फेंक दिया और मुझे अपनी छाती से चिपका लिया और कहते रहे- ‘अरे मेरे बेटा! तुही मेरौ बेटा ऐ।’

उनका वह अपनत्व भरा आलिंगन आज भी मेरा मन गद्गद कर देता है। उसके बाद उन्होंने अपना गणित का अधिक से अधिक ज्ञान मुझे दे डाला। जब कभी वे कक्षा 8 को पढ़ा रहे होते थे और हमारी कक्षा के लड़के वहाँ पहुँच जाते थे, तो वे मुझे छोड़कर बाकी सबको भगा देते थे और मुझसे कहते थे कि तू यह सीख ले। यह सब तेरे काम आयेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि कक्षा 6 में ही मैं कक्षा 8 के गणित के बहुत से प्रश्न हल करने लगा था। उन्होंने गणित के कुछ सवालों को हल करने के पुराने सूत्र भी मुझे बताये थे जो कि दोहे के रूप में थे। एक तरह का सवाल होता है कि एक आदमी ने 10 रुपये के 12 केले के हिसाब से कुछ केले खरीदे और 12 रुपये के 10 केले के हिसाब से बेचे तो उसे कितने प्रतिशत लाभ हुआ। इसका सूत्र है-
लघु-लघु बड़-बड़ कौ गुणा अन्तर लेहु निकारि।
लघू राशि पै लाभ गुनि प्रतिशत लेहु निकारि।।

कभी कभी बाबा हमें हिन्दी अपठित भी पढ़ाया करते थे, जिसके अन्तर्गत वे बहुत पुराने (हमारे लिए अज्ञात) पद्यावतरण और उनके अर्थ बताया करते थे। उस समय बाबा से सीखे हुए कई पद्य मुझे आज तक याद हैं, जिन्हें मैं नीचे लिख रहा हूँ-

1. हैं री तेरे लाल ऐहों ऐसी निधि पाई कहाँ, हैं री खगजान खग मैंने नहीं पारे हैं
हैं री गिरधारी कहूँ राम दल माँझ देख, हैं री वनवारी कहूँ शीत सर सारे हैं
हैं री कृष्णचन्द्र आली चन्द्र कहूँ कृष्ण होत, तब हँसि राधे कही मोर पक्ष वारे हैं
‘केशव’ दुराय जसुमति हँसि बोली यों तिहारे पक्षवारे सो हमारे क्यों सिधारे हैं?

2. खोलो जू किवार, तुम को हौ ऐती बार, हरि नाम है हमार, जाऔ कानन पहार में
हूँ तो प्यारी माधव, तौ कोकिला के माथे भाग, मोहन हूँ प्यारी, परौ मंत्रव्यभिचार में
जोगी हूँ रसीली, तौ जाऔ काहू दाता पास, भोगी हूँ प्यारी, तो बसौ जू पताल में
……………………………….. हूँ तौ घनश्याम, बरसौ जू काहू खार में।

3. वाघन पै गये देखि बन में रहे छिपि, साँपन पै गये तौ पताल ठौर पाई है
गजन पै गए धूरि डारत हैं शीश पर, वैद्यनपै गये दवा काऊ ना बताई है
तब हैराय हम हरि के निकट गये, हरि मोसे कहैं तेरी मति बौराई है
कोऊ न उपाय भटकत जनि डोलै क्यों, खाट के मगर खटमल्ल की दुहाई है।

4. तू रहि री हौं ही लखौं चढ़नि अटा शशि बाल ।
बिन ही ऊगे शशि समुझि दैहें अरघ अकाल ।।

वे स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं के विशेषज्ञ थे तथा 15 अगस्त, 26 जनवरी आदि राष्ट्रीय पर्वों पर काफी दिलचस्प बातें बताया करते थे। एक बार मैंने जिज्ञासा से पूछा था- ‘क्या आपने गाँधी, नेहरू, पटेल वगैरह नेता देखे थे?’ तो वे बोले थे- ‘हमने सबु देखेऽऽ’।

वे मुझे इतना प्यार करते थे कि मेरी बड़ी से बड़ी गलतियाँ भी मामूली सजा देकर माफ कर देते थे। मेरा दुर्भाग्य कि अन्तिम समय पर मैं उनके दर्शन न कर सका। रिटायर होने के दो वर्ष के अन्दर ही उनका देहान्त हो गया।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

2 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 7)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , कुछ हंसी आई आप के मुंडन के बारे में पड़ कर , यह यादें कितनी हसीन है चाहे वोह कितनी भी बुरी थीं उस समय . मेरी माँ की आँखें दुखनी आ गई थी जो आराम आने का नाम नहीं ले रही थीं . तब मेरे सर में जूएँ पड़ गई थी और एक लड़के ने मेरे सर में जूँ देख ली और टीचर को बता दिया , टीचर ने मुझे खूब पीटा और घर भेज दिया . इस घटना के बाद मैं इतना बदल गिया कि मैं अपने कपडे खुद आएरन करके बन ठान कर आने लगा . यह मेरी आदत एक क्रेज़ की हालत में हो गई थी और बड़ा हो कर जब मैं शहर फगवारे जाने लगा तो नये नए डीजाइन की बुशर्ट और पैंट होती थी . मेरे भी एक टीचर के साथ गहरे सम्बन्ध हो गए थे . २००१ में जब मैं इंडिया आया तो उनके घर मिलने गिया था . तब वोह ९० से ऊपर होंगे , उन्होंने मुझे पुरानी बातें सुनाईं . अब वोह इस दुनीआं में नहीं हैं लेकिन उनकी याद हमेशा आती है .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा भाई साहब आपने. पुराणी यादें कितनी भी कडवी हों लेकिन मीठी लगती हैं. यह सोचकर ख़ुशी होती है कि हमने ऐसे भी दिन देखे थे.
      आगे पढ़ते रहिये.

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