तुमसे …क्या कहा था उसने …
तपती दोपहरी में ..
जड़े सोचती होंगी
टहनी के शीर्ष पर
किसी भी हालत में
मुझे कल सुबह
खिलाना हैं गुलाब
बिना चिंतन किये
कैसे बहती होगी …
नदिया की धार
अपने मौलिक ..विचारों को
जिस तरह छिपाए रखता है
आखिर तक इंसान
उसी तरह
जमीन से पर्वत की चोटी तक
बनी हुई सीढियों के दर्द को
कहाँ अभिव्यक्त कर पाते हैं
मूक पाषाण
धूप में चमचमाता हुआ कांच
कब कर पाता है
अपनी खुशियों का इजहार
बैठ कर शमशान के समीप
कौन सुनता है
कब्र के उदगार
इसीलिए खामोशी से
……कहता हूँ
मुझे भी सिखला दो
इशारों से ..
अपनी गूँगी भाषा ..चुपचाप
ताकि पुकार सकूँ …
लहरों की तरह
तुम्हें …ऐ वक्त …..!
मत जाओ ..कोलाहल से भरा हैं शहर
मुझ वृक्ष के नीचे
कुछ देर तो जाओ ठहर
सुकून देने वाला …मेरे मन में बसे
वृहत जंगल सा हैं ..मेरा एकांत
पूछता दर्पण से …
मेरे बारे में ..
तुमसे …क्या कहा था उसने
क्या उसे सचमुच …?
मेरी आवारगी से हैं प्यार
— किशोर कुमार खोरेंद्र