इक ‘आसरा’ सब का,
उठाना खुद ही पड़ता है, थका टूटा बदन अपना
जब तक सांस चलती है, कोई कान्धा नहीं देता,
न रिश्ते में न यारी में कोई उम्मीद बाकी है
यहाँ मर मर के जीते हैं, कोई होंसला नहीं देता,
जहाँ भी देखता हूँ मैं, कि बस मतलब कि दुनिया है
किसी हमदर्द का अब कोई, नहीं नामो निशां दिखता,
जले जो घर किसी का, तो तमाशा देखते है लोग,
बचाते जान सब अपनी, कोई रास्ता नहीं देता,
न मिलती चैन की घड़ियाँ, न मिलता हैं सकून दिल को
यह कैसी है तड़प दिल में, कोई हमदम नहीं मिलता,
प्रभु को याद रख बन्दे तो तेरा कभी कुछ न बिगड़ेगा,
यही इक ‘आसरा’ सब का, जो कभी धोखा नहीं देता,
……………जय प्रकाश भाटिया
सही बात !
सब सच है , बस मन को समझाने से ही गुज़ारा हो सकता है .