रोला छंद
आ ही जाता याद, जिसे हर वक्त भुलाते
गुजरा लमहा मान, आज से दूर हटाते
कर देती बेचैन, पुरानी एक कहानी
नाचा था जब मोर और बरसा था पानी
सपनों की बारात गीत गाती चलती थी
मुहब्बतों के नाम शमा पल-पल जलती थी
टूटी-बिखरी चाह रोज चुभती पाँवों में
आता नहीं बसंत कभी उजड़े गाँवों में
कहाँ गई वो रात, चाँद जब मुस्काता था
पाते ही आवाज, दौड़ के आ जाता था
अमावसों का जुल्म हुआ मुश्किल अब सहना
सीख गये हैं नैन, बिना कुछ बोले बहना
रोला छंद में अच्छी कविता ! इस छंद का उपयोग कविवर मैथिली शरण गुप्त ने बहुत किया है.
बहुत सुन्दर कुमार गौरव जी