कविता

रोला छंद

आ ही जाता याद, जिसे हर वक्त भुलाते
गुजरा लमहा मान, आज से दूर हटाते
कर देती बेचैन, पुरानी एक कहानी
नाचा था जब मोर और बरसा था पानी

सपनों की बारात गीत गाती चलती थी
मुहब्बतों के नाम शमा पल-पल जलती थी
टूटी-बिखरी चाह रोज चुभती पाँवों में
आता नहीं बसंत कभी उजड़े गाँवों में

कहाँ गई वो रात, चाँद जब मुस्काता था
पाते ही आवाज, दौड़ के आ जाता था
अमावसों का जुल्म हुआ मुश्किल अब सहना
सीख गये हैं नैन, बिना कुछ बोले बहना

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन

2 thoughts on “रोला छंद

  • विजय कुमार सिंघल

    रोला छंद में अच्छी कविता ! इस छंद का उपयोग कविवर मैथिली शरण गुप्त ने बहुत किया है.

  • जवाहर लाल सिंह

    बहुत सुन्दर कुमार गौरव जी

Comments are closed.