ग़ज़ल
आओ मजहब की नई रीत बनाकर देखें ।
दर्दे इंसानियत को दिल में सजाकर देखें ।।
जली हैं बेटियां अक्सर इन्हीं चिताओं में ।
लगी है आग जो थोड़ी सी बुझा कर देखें ।।
काबा काशी के चरागों से सबक क्या सीखा ?
गरीबखाने में इक दीप जलाकर देखें ।।
लुट गया मुल्क है दौलत के निगहबानों से ।
काले पर्दों को जरा हम भी उठाकर देखें ।।
डूबते कर्ज से लाशें दिखीं किसानो की ।
इस हकीकत का गुनहगार मिटाकर देंखे।।
हो ना कुर्बान फिर शहीद इस सियासत से।
जुबाँ पे ताले सियासत के लगाकर देखें ।।
खो ना जाए कहीं तहजीबे तकल्लुफ का चलन ।
चलो इंसान को इंसान बनाकर देंखे ।।
– नवीन मणि त्रिपाठी
बहुत बधाई आपको .
बहुत अच्छी ग़ज़ल !
ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी .