स्वदेशी आंदोलन के प्रथम शहीद बाबू गेनू
12 दिसम्बर1930 का दिन भारत के स्वदेशी आंदोलन का अत्यंत महत्वपूर्ण दिन है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी केे स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन से प्रेरित होकर बाबू गेनू कांग्रेस को चार आने देने वाला सदस्य था। जो विदेशी वस्तुओं से भरी लारी को रोकते हुए शहीद हो गया और स्वदेशी आहावन के लिए प्रथम बलिदानी होने का गौरव प्राप्त किया। उस समय की अंग्रेज सरकार देश को आर्थिक दृष्टि से लूट रही थी। इंग्लैेंड में चलने वाली फैक्ट्रियों का उत्पादन बढ़ाने हेतु आवश्यक कच्चे माल के लिए भारत के संसाधनों का दोहन किया जाता था। अंग्रेजों की इस कुचाल को विफल करने के लिए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी ने स्वातंत्र्य संग्राम में स्वदेशी अपनाने और विदेशी माल के बहिष्कार करने का प्रबल अभियान चलाया था। स्वदेशी और बहिष्कार का सत्याग्रह देश की अस्मिता का प्रतीक बन गया। बाबू गेनू ने इसमें पूरी शक्ति से भाग लिया।
बाबू गेनू का जन्म पुणे जिले के आंबेगांव तहसील में पहाड़ियों के पाश्र्व मेें बसेगांव महालुगे पड़वक में हुआ था। गांव की जमीन बंजर थी। गेनू के पिता ज्ञानबा और माता कोंडबाई खून पसीना बहाकर खेती किया करते थे। परिवार में भोजन की समस्या रहती थी। 1908 में तीसरी संतान के रूप में बाबू गेनू का जन्म हुआ था। इलाज के अभाव में बाबू के पिता ज्ञानबा चल बसे। बाबू बचपन से ही कुशाग्रबुद्धि के थे। एक बार पढ़ते ही उन्हें सारी बातें समझ में आ जाती थीं। लेकिन आर्थिक संकट के कारण उनका स्कूल जाना संभव नहीं था। वह घर के जानवरों को चराने का काम करने लगा। एकदिन उसका बैल दूसरे बैल से लड़ते लड़ते पहाड़ के नीेचे गिरकर मर गया।इसके थोड़े दिनों के बाद गाय और बकरियां बेच दी गयीं।
अब बाबू दूसरों के खेतों पर काम करने लगा, उसकी मां ने मुम्बई पहुॅचकर एक मिल में काम करना प्रारम्भ कर दिया। बाबू चूकि तरूण हो चुका था अतः वह मां के पास मुम्बई चला गया और मां के साथ मिल में काम करने लगा। बाबू के बचपन का मित्र प्रहलाद तत्कालीन सामाजिक, राष्ट्रीय परिस्थितियों से पूरी तरह से परिचित था। वह बाबू से स्नेह रखता था। कालान्तर में बाबू राष्ट्रीय विचारधारा के एक मुस्लिम व्यक्ति के संपर्क में आया जो शिक्षक थे। बाबू उसे चाचा कहते थे। इस व्यक्ति ने बाबू को समझाया कि जिस मिटटी में पलकर हम बढ़े हुए हैें उसी की हम संतान हैं। अपने देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना हमारा कर्तव्य है।
चाचा ने बाबू को अंग्रेजों की बर्बरता उनकी आक्रामकता तथा अन्याय के विषय में भी विस्तार से सारी बातें समझाईं। चाचा ने ही बाबू को महात्मा गांधी का शिष्य बनाया। 1926- 27 में बाबू कांग्रेस के वालण्टियर बन गये। 1927 में मई- जून में जातीय दंगो में 250 लोगमारे गये और 2500 लोग घायल हुए। कई जगह कफ्र्यू लगा। कफ्र्यूंग्रस्त इलाकों में बाबू और उनके मित्र प्रहलाद ने स्वदेशी का प्रचार किया। बाबू ने अपनी स्वतंत्र वाहिनी बनायी और तानाजी पथक संगठित किया। कुछ धनसंग्रह करके चरखाफंड बनाया। बाबू के मित्रगण हररोज सूत कातते और खादी का कपड़ा बनाते थे।वे स्वयं तो खादी पहनते ही थे अन्य लोगों को प्रेरित भी करते थे।
1928 में साइमन कमीशन विरोधी आंदोलन में बाबूने अपनपे तानाजी पथक के साथ बढ़कर हिस्सा लिया। 3 फरवरी 1928 को बाबू ने एक बड़ा जुलूस आयोजित किया। इस दिन पूरे मुम्बई सहित दिल्ली, कलकत्ता, पटना, चेन्नई आदि शहरों में भी जोरदार प्रदर्शन हुआ। लाहौर के प्रदर्शन में पुलिस लाठीचार्ज में लालालाजपत राय घायल हो गये और उनकी मौत हो गयी । सत्याग्रह आंदोलन में बाबू भी जेल गया। जेल में ही उसे अपनी मां के निधन का दुःखद समाचार मिला।बाबू ने अपने मित्रों से कहाकि, “अब मैें पूरी तरह से मुक्त हो गया हूं” भारत माता को मुक्त कराने के लिए कुछ भी कर सकता हूं।“
अक्टूबर 1830 में बाबू गेनू प्रहलाद और शंकर के साथ जेल से बाहर आये। फिर से स्वदेशी का प्रचार प्रारम्भ कर दिया। दीपावलि 1930 के बाद विदेशी माल के बहिष्कार का आंदोलन पूरे देश में फैल गया।
बाबू गेनू ने सभी स्वयंसेवकों से मिलकर तयकियाकि विदेशी वस्तुएं लेकर जाने वाले सभी ट्रकों को रोंकेंगे।12 दिसम्बर 1930 शुक्रवार को सत्याग्रह का दिन तय किया। विदेशी सामानों से भरी लारियां- ट्रक आदि को रोकने का निश्चय किया गया। मुम्बई के मुलजीजेठा मार्केट सें विदेशी कपड़े जाने थे जिनको रोकने की जिम्मेदारी मुम्बई शहर की कांग्रेस पार्टी ने बाबू गेनू और उनके तानाजी पथक को सौंपी। मिस्टर फ्रेजर को इसकी जानकारी थी। इसलिए उसने पुलिस बल को पहले ही बुला लिया था। प्रातः साढे दस बजे से ही सत्याग्रहियों की टोलियां जयघेाष करती हुईं आनें लगी। बाबू के नेतृत्व में तानाजी पथक भी आया। विदेशी माल से भरे ट्रक दौड़ने पड़े। विदेशी कपड़ों से भरी हुई एक लारी आ रही थी। बाबू ने लारी रूकवाने का प्रयास किया। कड़े पुलिस बंदोबस्त के बावजूद एक युवक लारी के सामने तिरंगा लेकर लेट गया। ड्राइवर ने ब्रेेक लगाया और गाड़ी रूक गयी। भारतमाता की जय और वंदेमातरम के नारों ने जोर पकड़ लिया। कई और युवक इसमें शामिल होते चले गये। धीरे- धीरे पुलिस का गुस्सा बढ़ता चला गया। पुलिस ने बल प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया। सत्याग्रहियोें का जोर भी पकड़ रहा था। तभी लारी के सामने स्वयं बाबू गेनू आगया। नाराज पुलिस का नेतृत्व कर रहे अंग्रेज सार्जेंट ने हुक्म दिया, लारी चलाओं ये हरामखोर मर भी गये तो कोईबात नहीं। ड्राइवर भारतीय था उसका नाम बलवीर था। उसने लारी चलाने से मनाकर दिया। तब अंग्रेज सार्जेंट ने स्वयं लारी चलानी प्रारम्भ कर दी।
लारी बाबू गेनू के ऊपर से गुजर गयी। वह गम्भीर रूप से घायल हो गया। पूरी सड़क बलिदानी खून से लाल हो गयी। अंतिम सांसें ले रहे बाबू को अस्पताल में भर्ती करवाया गया जहां बाद में उसकी मृत्यु हो गयी। बाबू की अंतिम यात्रा के दिन पूरा मुम्बई बंद रहा। उसकी याद में उसके गांव महालुंगें पडवल में प्रतिमा स्थापित की गयी है। प्रत्येक वर्ष 12 दिसम्बर का दिन बाबू गेनू के स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाता है।