आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 13)
अध्याय-5: दिल ही तो है
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो।
न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाये।।
कानपुर से वापस आने के बाद मैं इण्टर में दाखिला लेने अपने विद्यालय राजकीय इण्टर काॅलेज, आगरा गया और मुझे बिना किसी परेशानी के प्रवेश मिल भी गया। हालांकि मैं दो दिन देरी से पहुंचा था। हमारा हाईस्कूल का अध्यापक वर्ग जहाँ एकाध अपवादों को छोड़कर काफी सहृदय था, वहाँ इण्टर का अध्यापक वर्ग उसके ठीक विपरीत था, यहाँ भी एकाध अपवादों को छोड़कर।
हमारे अंग्रेजी के अध्यापक थे श्री प्रेम नाथ सूद, जो अत्यन्त सहृदय और शालीन थे। वे मुझे बहुत प्यार करते थे और काफी प्रोत्साहन देते थे। वे केवल एक वर्ष तक हमें पढ़ा सके। उसके बाद वे किसी दूसरे इण्टर काॅलेज के प्रधानाचार्य होकर चले गये थे। उनके जाने के बाद जो महानुभाव पधारे थे, वे बहुत ही अनुपयोगी साबित हुए। हिन्दी के हमारे शिक्षक थे श्री चतुरी प्रसाद शर्मा। वे भी काफी अच्छे अध्यापक थे और कुल मिलाकर उनका व्यवहार भी मेरे प्रति काफी अच्छा था। वे हमारे कक्षा अध्यापक भी थे।
इन दो अपवादों को छोड़कर हमारे बाकी समस्त अध्यापक काफी आत्म संतुष्ट और दूर-दूर रहने वाले थे, हालांकि अपने कुछ चमचों पर उनकी बड़ी कृपा दृष्टि रहती थी। हमारे भौतिक विज्ञान के शिक्षक थे श्री मथुरेश कुमार उपाध्याय, जो संयोग से हमारे ही गाँव के निकट के गाँव नगला विधी के थे। इसके बावजूद मैं उनसे काफी डरता था और दूर-दूर ही बना रहता था, क्योंकि वे बहुत कठोर और अनुशासन प्रिय अध्यापक माने जाते थे। वे छात्रों को छोटी-छोटी गलतियों पर भी बड़ी सजा देते थे। पढ़ाई के बीच में यदि कोई उनसे प्रश्न पूछने की हिम्मत करता था, तो वे पहले उसके कान खींचते थे, तब जबाव देते थे। इसलिए कोई उनसे प्रश्न पूछने की जुर्रत नहीं करता था। वे इतने कठोर थे कि चाॅक के बचे हुए छोटे-छोटे टुकड़ों को भी पैर से मसलकर चूरा बना डालते थे, ताकि कोई कलाप्रेमी छात्र अपनी कला का नमूना श्यामपट (ब्लैक बोर्ड) पर न दिखा दे।
गणित के हमारे शिक्षक श्री भगवत स्वरूप शर्मा थे, जिन्हें लड़के मजाक में ‘भस्सू’ कहा करते थे। वे बहुत ही विनोदी स्वभाव के थे, इसलिए लड़के उनके साथ काफी स्वच्छन्द हो जाते थे। वैसे उनका गणित का ज्ञान भी औसत दर्जे का था और कई बार वे मामूली से कठिन प्रश्नों को भी हल नहीं कर पाते थे, जिन्हें प्रायः मैं हल कर दिया करता था। लेकिन यह आश्चर्य की ही बात थी कि इसके बावजूद मैं उनकी प्रशंसा या शाबासी का पात्र कभी नहीं बन सका। इसलिए मैंने यह नियम बना लिया था कि यदि कोई सवाल वे न कर सके और मैं कर लेता था, तो भी उनको बताता नहीं था। उनकी कृपा दृष्टि अपने उन चमचों पर ज्यादा रहती थी, जो प्रायः फेल होते रहते थे। बीच में कुछ समय के लिए उनका स्थानान्तरण कहीं दूसरी जगह हो गया था और हम गणित के शिक्षक के बिना रह गये थे। उस जगह को भरने के लिए एक नये अध्यापक आये थे, जो स्वयं ज्यादा समय न रह सके। अन्त में श्री भगवत स्वरूप शर्मा किसी तरह जुगाड़ लगाकर पुनः वापस आये थे।
सबसे विचित्र स्थिति थी रसायन विज्ञान की। इस विषय के शिक्षण के लिए हमें तीन अध्यापकों को झेलना पड़ा। तीनों एक से बढ़ कर एक नमूना थे। उनमें से एक का नाम श्री पाण्डे था। बाकी दो के नाम याद नहीं हैं। पाण्डेजी अपने में ही मस्त रहने वाले जीव थे। कक्षा में पढ़ाते थे तो इस तरह जैसे उनके मुँह से आवाज न निकलती हो और बोर्ड पर चित्र ऐसे बनाते थे जैसे हाथों में दम नहीं हो। उनसे कोई प्रश्न पूछने का अर्थ था आ बैल मुझे मार। अतः लड़के जितना समझ पाते थे उतने को ही पाण्डेजी का प्रसाद मानकर संतोष कर लेते थे। उनके जाने के बाद जो दो नये अध्यापक बारी-बारी से आये उनमें और पाण्डेजी में उतना ही अन्तर था, जितना नागनाथ और साँपनाथ में होता है, अर्थात् मात्र नाम का फर्क था।
यदि मैं अपने इण्टर की फैकल्टी को एक वाक्य में व्यक्त करूँ तो कहूँगा कि वह बहुत ही औसत दर्जे की थी और मैंने जितने भी अध्यापकों से शिक्षा प्राप्त की है उनमें ये सबसे घटिया कहे जा सकते हैं। ऐसे महान् गुरुवरों को पाकर हमारा ज्ञान जितना बढ़ सकता था उतना ही बढ़ा और जैसा परिणाम रह सकता था, वैसा ही रहा अर्थात् हाईस्कूल में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए ज्यादातर छात्रों को द्वितीय श्रेणी से संतोष करना पड़ा, जिनमें मैं भी था, और कई औसत दर्जे के मगर पास होने लायक छात्र फेल हो गये।
वह जमाना 1975-76 का था अर्थात् इमरजेन्सी का युग, जब श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश को आपात स्थिति के अंधकार में धकेल दिया था।
उन्हीं दिनों मेरी रुचि डाक टिकट और माचिस के लेबुल संग्रह करने में हो गयी थी। इस काम के लिए मैं अपना बहुत सा समय और कुछ पैसा भी खर्च करता था। कई बार मुझे किसी विशेष डाकटिकट के लिए आगरा के मुख्य डाकघर तक प्रतापपुरा भी जाना पड़ता था, जो कि हमारे मौहल्ले लोहामण्डी से काफी दूर है। मैं प्रायः ऐसे मौकों पर पैदल ही आता जाता था। मैं मुख्य रूप से प्रसिद्ध व्यक्तियों के ऊपर जारी भारतीय टिकटों को संग्रहीत किया करता था। ऐसे डाक टिकटों का एक बहुमूल्य संग्रह अभी भी मेरे पास सुरक्षित है। मैंने लगभग 300 प्रकार की माचिसों के लेबुल भी एकत्रित किये थे। उन्हें भी अभी तक सुरक्षित रखे हुए हूँ।
(पादटीप : अब माचिस के लेबलों का संग्रह तो मैंने फेंक दिया है, लेकिन डाकटिकट अभी भी मेरे पास सुरक्षित रखे हुए हैं.)
उस समय देश में क्रिकेट का बुखार अपनी चरम सीमा पर था। भारतीय टीम चारों ओर दिग्विजय कर रही थी। स्वाभाविकतया भेड़िया धसान की तरह मेरी भी खेलों में रुचि जाग्रत हुई और छोटी-मोटी जानकारियाँ और आँकड़े इकट्ठे करने से ही मैं स्वयं को क्रिकेट का विशेषज्ञ समझने लगा था। सौभाग्य से मुझे ठीक समय पर आगरा से प्रकाशित होने वाली एक खेल पत्रिका के सम्पादक से प्रोत्साहन मिला और उन्होंने मेरे लगभग एक दर्जन लेख अपनी पत्रिका ‘खेल समाचार’ में प्रकाशित किये। लेकिन वे इसके बदले में मुझे कुछ देते नहीं थे तथा लेख लिखने में मेरा समय बहुत लग जाता था, अतः बाद में मैंने उनके लिए लिखना बंद कर दिया।
जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, हाईस्कूल में मेरे अंक 71.2 प्रतिशत थे अर्थात् 70 प्रतिशत से अधिक। अतः मैं राष्ट्रीय योग्यता छात्रवृत्ति का पात्र था। सौभाग्य से मुझे इसके लिए कुछ नहीं करना पड़ा और मेरे लिए छात्रवृत्ति स्वतः स्वीकृत होकर आ गयी। उसकी राशि थी 50 रुपया प्रति माह जो कि उस समय मेरे लिए बहुत अधिक राशि थी। वैसे अब तक हमारी आर्थिक स्थिति भी कुछ सुधर गयी थी। फिर भी इस छात्रवृत्ति की मुझे बहुत अधिक आवश्यकता थी। कक्षा 11 का मेरा समय ज्यादातर अपना इलाज कराने में और बाकी अखबार पढ़ने में गुजर जाता था। अपनी कक्षाओं को मैं बहुत लापरवाही से लेता था। हाईस्कूल में अच्छे अंक आने के कारण मुझे कुछ घमंड था कि मैं इण्टर में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो जाऊँगा।
एक तो खराब स्टाफ, दूसरा पढ़ाई में लापरवाही और तीसरा अहंकार या अति आत्मविश्वास- इन तीनों कारणों को मिलाकर जो परिणाम होना चाहिए था वही हुआ अर्थात् मैं कक्षा 11 की अर्द्धवार्षिक परीक्षा में मात्र 43 प्रतिशत अंक प्राप्त कर सका। मैं रसायन विज्ञान में फेल भी था और अपनी जिन्दगी में पहली बार किसी विषय में फेल हुआ था। अर्द्धवार्षिक परीक्षा का परिणाम आने पर मैं कुछ चेता लेकिन लापरवाही की आदत छूटना मुश्किल था क्योंकि वह समय बहुत राजनैतिक उथल-पुथल का था।
मुझे यह मालूम नहीं था कि राष्ट्रीय योग्यता छात्रवृत्ति को जारी रखने के लिए हर कक्षा में कम से कम 50 प्रतिशत अंक आने चाहिए। अगर यह मालूम होता तो शायद मैं दो महीने मेहनत कर भी लेता। लेकिन मैंने सोचा कि कक्षा 11 के अंकों का कोई महत्व नहीं है अतः पास हो जाना काफी है। लेकिन अर्द्धवार्षिक परीक्षा का परिणाम देखकर मैं कुछ चैंका, क्योंकि इससे तो मेरी प्रतिष्ठा ही धूल में मिली जा रही थी। अतः अब मैंने पढ़ाई पर कुछ ध्यान देना शुरू किया, हालांकि कड़ी मेहनत अभी भी नहीं की। इसका मुझे फल भी मिला और कक्षा 11 की वार्षिक परीक्षा में मुझे 49 प्रतिशत अंक प्राप्त हुए। मेरी उस वर्ष की हालत को देखते हुए यह काफी सुधार था लेकिन ये 50 प्रतिशत से अभी भी कम थे। यह तो मुझे बाद में पता चला कि 50 प्रतिशत अंक न आने पर मेरी छात्रवृत्ति रुक गयी थी।
वह सन् 1975 की मई की बात है, जब जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन चरम सीमा पर था। मेरे कानों में कोई लाभ दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। अतः मुझे इलाज के लिए दिल्ली ले जाने का निश्चय किया गया। वहाँ कई बार मुझे अपने बड़े भाईसाहब श्री महावीर प्रसाद के साथ जाना पड़ा। वहीं मेरे गले का भी छोटा सा आपरेशन किया गया (क्यों यह पता नहीं), जिससे मेरी आवाज कुछ खुल गयी, लेकिन कानों में फिर भी कोई लाभ दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अन्ततः वहाँ के डाक्टरों ने हार मानकर मुझे छुट्टी दे दी। आश्चर्य इस बात का है कि मैं अपने कानों का इलाज कराने दिल्ली गया था, लेकिन मेरा एक्सरा खिंचवाया गया नाक का और आपरेशन किया गया गले का। ऐलोपैथिक डाक्टरों की इस लीला को मैं आज तक भी नहीं समझ पाया हूँ। इतना तो मुझे मालूम है कि नाक-कान-गला ये तीनों अंग आपस में गहरे से जुड़े हुए हैं, लेकिन किसी डाक्टर ने मुझे आज तक भी यह नहीं बताया है कि मेरे कानों में खराबी क्या है।
(जारी…)
विजय भाई , आप अपनी कहानी बता रहे हैं और साथ साथ मैं भी जैसे आप के पड़ोस के सकूल में हूँ . मिडल सकूल के एग्जाम में मैं भी कम अंकों पे पास हुआ था लेकिन मैट्रिक में जाते ही मैं सीरीअस हो गिया था . यह था राम्गरीआ हाई सकूल फगवारा जो जालंधर से १५ मील दूर है . हम मेरे गाँव रानी पुर से चार विदिआर्थी थे . दुसरे तीन तो पड़ने में कमज़ोर थे , लेकिन जब से हम ने शहर में एक कमरा किराए पे ले लिया था हम कुछ धियान देने लगे थे . हम तीन की तो आर्थिक विवस्था ठीक थी लेकिन एक बहुत गरीब था और उस की मैं बहुत मदद किया करता था . मुझे याद है जब हम मैथेमैटिक्स का एग्जाम दे कर आये तो मेरा गरीब दोस्त अजीत कमरे में आ कर बहुत रोया , वोह एक बात कहे जा रहा था कि उस का परचा ठीक नहीं हुआ जब कि मैं उस को यकीन दुआ रहा था कि वोह पास हो जाएगा . खैर जब हमारा नतीजा आया तो मेरी फस्ट डवीजन थी , मेरे गरीब दोस्त अजीत की सैकंड और दुसरे दो की थर्ड आई . अब भागय का खेल देखिये हम दो दोस्त तो इंग्लैण्ड आ गए , एक की एग्जाम के दो वर्ष बाद मृतु हो गई और जो मेरा दोस्त अजीत था मुम्बई में उस का बहुत बड़ा कारबार था . १९८९ में मैं उस को मुम्बई मिल कर आया था , पुरानी यादें ताज़ा हुईं , हम बहुत हँसे पुरानी बातों को याद करके , उस ने मुझे पुरानी फोटो दिखाई जिस में उस के सर पर बाँधी हुई पगड़ी मेरी थी . अब तो उस से कॉन्टैक्ट हो नहीं सका और मुझे उस का एड्रेस और टेलीफून भी पता नहीं लेकिन उस की याद हमेशा दिल में रहती हैं . वोह दिन भी कितने अजीब थे .
धन्यवाद, भाई साहब ! आपकी कहानी भी रोचक है. मैं आपकी कहानी शीघ्र छापना शुरू करूँगा.
padha ……….aage ke liye utsukta bani hui hai ….
आभार, खोरेंद्र जी.