हमारा प्राचीन देश आर्यावर्त व भारत
हमारे देश का संविधान सम्मत नाम “भारत” है। अंग्रेजी में इसे इण्डिया कहते हैं। प्राचीन नाम जो भारत से भी पुराना है वह आर्यावर्त है। सृष्टि के आदि में आर्यों द्वारा इसे बसाये जाने और उनके यहां रहने के कारण इसका नाम आर्यावर्त था। आर्यावर्त से पूर्व इस देश का अन्य कोई नाम नहीं था और न आर्यों से पूर्व कोई अन्य मनुष्य आदि यहां रहते थे। आर्यावर्त के साथ-साथ प्राचीन काल से ही इसका नाम “भारत” भी व्यवहार में रहा है। भारत नाम क्यों पड़ा? इसका कारण महाराजा दुष्यन्त एवं शकुन्तला की महाप्रतापी सन्तान महाराजा भरत का सृष्टि के पूर्व राजाओं से सर्वाधिक प्रतापी व यशस्वी होना है। महाराज दुष्यन्त, महारानी शकुन्तला तथा महाराज भरत का इतिहास महाभारत ग्रन्थ के आदि पर्व में महर्षि वेदव्यास जी ने प्रस्तुत किया है। अति प्राचीन काल में दिव्य गुणों से सम्पन्न यशस्वी महाराजा पुरू हुए जिनके नाम से पुरूवंश व चन्द्रवंश चला। इनकी पत्नी का नाम महारानी पौष्टी था। इसी कुल में वीर्यवान् महाराजा दुष्यन्त हुए जिन्होंने कण्व ऋषि की पुत्री देवी शकुन्तला से गन्धर्व विवाह किया था। महाराजा दुष्यन्त की यही सन्तान “भरत” उनकी उत्तराधिकारी बनी। महाराजा भरत का पूर्व नाम सर्वदमन था। शुद्ध महाभारत ग्रन्थ के रचनाकार प्रो. सन्तराम बी.ए. ने महाभारत आदिपर्व के अध्याय 74 के आधार पर लिखा है कि “महाराजा दुष्यन्त व सारी प्रजा ने अपने पुत्र ‘सर्वदमन’ का नाम ‘भरत’ रखा। इसी भरत के नाम भरतकुल हुआ। यह राजा चक्रवर्ती सार्वभौम प्रताप वाला हुआ। इसके समय में देश में धर्म प्रचार, विद्या–प्रचार, वीरता संचार बहुत हुआ। इसे वैदिक यज्ञों पर बड़ी श्रद्धा थी, इसलिये महर्षि कण्व को बुलाकर इसने अनेक यज्ञ किये।“ अतः महाभारत से भी पूर्व अति प्राचीन काल से हमारे इस आर्यावर्त देश का एक अन्य नाम भरत भी साथ-साथ प्रचलित रहा है।
वैदिक धर्म में जब भी कोई धार्मिक कर्मकाण्ड आदि किया जाता है तो आरम्भ में यजमान द्वारा इस कार्य को करने का संकल्प किया जाता है। इस संकल्प वाक्य में कुछ महत्वपूर्ण शब्दों को बोला जाता है जिसे वैदिक धर्मी आर्यसमाजी और सनातनधर्मी पौराणिक लोग परम्परा से बोलते आ रहे हैं। यह परम्परा सृष्टि के आदि काल से चली आ रही है जिसमें राजा भरत के बाद के काल में देशवासियों ने उनका नाम भी इसमें जोड़े दिया। वाक्य के कुछ शब्द हैं- ‘ओ३म् तत्सत श्री ब्रह्मणो द्वितीय प्रहराद्र्धे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे आर्यावर्तान्तरैकदेशान्तर्गते जन्बूद्वीपे भरतखण्डे … अत्रेदं कार्यं कृतं क्रियते वा।’ इस संकल्प वाक्य में भरत-खण्ड नाम का होना भी हमारे देश के भारत नाम की महाभारत काल से पूर्व व प्राचीनता का प्रमाण हैं। इस वाक्य में आर्यावर्त के साथ-साथ इस देश को जम्बूद्वीप और भरत खण्ड कहा गया है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि हमारा देश भारत जम्बूद्वीप के अन्तर्गत था और संसार में अन्य अनेक महाद्वीप थे। महर्षि दयानन्द ने इस संकल्प वाक्य का दिनांक 19-20 मार्च सन् 1877 ई. को चांदापुर के मेले के अवसर पर ईसाई मत के पादरी स्काट साहब, पादरी नोबिल साहब, पादरी पार्कर साहब और पादरी जान्सन साहब तथा मुसलमानों की ओर से मौलवी मुहम्मद कासम साहब, सैयद अब्दुल मंसूर साहब तथा आर्यधर्म की ओर महर्षि दयानन्द तथा मुन्शी इन्द्रमणि के मध्य हुए शास्त्रार्थ में भी उल्लेख किया है जिससे सृष्टि, वेदोत्पत्ति, मनुष्योत्पत्ति तथा सृष्टिकाल 1,96,08,53,114 वर्षों का ज्ञान शास्त्रार्थ के प्रतिभागियों को कराया जा सके।
हम सब जानते हैं कि रामायण एवं महाभारत हमारे इतिहास के प्राचीन ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ हमारे ऋषियों, महर्षि बाल्मिकी और महर्षि वेदव्यास जी की रचनायें है। ऋषि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए तथा चारों वेदों के पूर्ण जानकार योगी होते हैं। इस योग्यता को प्राप्त करने के बाद वह जो कहा करते थे व लिखते थे वह पूर्ण सत्य हुआ करता था। महाभारत का युद्ध आज से 5,150 वर्ष पूर्व कुरूक्षेत्र की भूमि पर पाण्डवों व कौरवों के बीच हुआ था। इसके कुछ समय बाद महर्षि वेदव्यास जी ने “भारत” नाम से इस युद्ध पर आधारित एक इतिहास ग्रन्थ की रचना की जिसमें 24,000 श्लोक थे। यह बात महाभारत ग्रन्थ में स्वयं महर्षि वेदव्यास जी की कही व लिखी हुई है। समय के साथ इसमें प्रक्षेपों द्वारा विस्तार होता गया और अब महाभारत में 1 लाख 25 हजार के लगभग श्लोक मिलते हैं। यहां प्रश्न मात्र यह है कि महर्षि वेदव्यास ने इस इतिहास ग्रन्थ का नाम “भारत” ही क्यों रखा? इसका कारण यही हो सकता है उन दिनों देश का नाम आर्यावत्र्त के साथ-साथ “भारत” प्रसिद्ध था। अतः महर्षि वेदव्यास जी ने अपने इतिहास के इस प्रसिद्ध ग्रन्थ को भारत नाम से सुशोभित किया। उनका उद़देश्य था कि देश के राजनैतिक व सामाजिक वातावरण के साथ उस महायुद्ध का ज्ञान भी समकालीन व भावी पीढि़यों को भली भांति हो सके। हमारे ऋषियों की यह विशेषता दिखाई देती है कि वह अपने ग्रन्थों के सार्थक नाम ही रखते थे। उपनिषद, दर्शन व ब्राह्मण आदि ग्रन्थों के नाम देख कर यह अनुमान सत्य सिद्ध होता है।
पं. भगवत्त दत्त रिसर्च स्कालर आर्य जगत की प्रमुख व प्रसिद्ध विभूति थे। उन्होंने अनेक शोधपूर्ण ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन व प्रकाशन किया। उनकी विद्वता व लेखन कार्य आर्यसमाज के साथ बाह्य जगत में भी प्रसिद्धि को प्राप्त है। उन्होंने “भारतवर्ष का वृहद इतिहास” नाम से दो खण्डों में इस ग्रन्थ की रचना की है जिसमें महाभारत काल से पूर्व से बाद तक का इतिहास दिया है। इतिहास की दृष्टि से इस ग्रन्थ का महत्व निर्विवाद है। इसके साथ यह भी ज्ञात होता है कि हमारे देश का प्राचीन नाम भारत था और इसी कारण उन्होंने अपने ग्रन्थ को भारतवर्ष का वृहद इतिहास नाम दिया है। पं. भगवद्दत्त जी के ही समान आचार्य रामदेव जी भी आर्यजगत में अपूर्व वक्ता, शिक्षाशास्त्री तथा साहित्यकार हुए हैं। उन्होने भी तीन खण्डों में “भारतवर्ष का बृहद् इतिहास” लिखा है जिसमें रामायण काल, महाभारत काल सहित प्राचीन इतिहास सम्मिलित है। इन ग्रन्थ के नामकरण में “भारत” नाम का प्रयोग भारत नाम की प्राचीनता के कारण ही किया गया सिद्ध होता है।
अतः इमारे देश के प्राचीन नामों में आर्यावत्र्त के साथ “जम्बूद्वीप” व “भारत” नाम भी सम्मिलित हैं और इनका यथास्थान प्रयोग किया जाना उचित है। हमारे अनेक विद्वानों व मित्रों को कई बार देश के ‘भारत’ नाम से कुछ भ्रान्तियां हो जाती हैं। इसके समाधान के लिए यह कुछ पंक्तियां लिखी हैं। आशा है कि इससे सभी को लाभ होगा।
–मनमोहन कुमार आर्य
आपका लेख अच्छा है. पर एक बात पर शंका है. मेरी जानकारी के अनुसार हमारे देश का नाम “भारत” सम्राट ऋषभदेव के नाम पर पड़ा था, जिनको ‘जड़भरत’ भी कहा जाता था. शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत तो उनके बहुत बाद में हुए थे.
महाभारत ५००० वर्षों से अधिक पुराना पुराण है एवं प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रन्थ है। इसमें महाभारत काल से अति पूर्व व प्राचीन घटनाएँ भी दी हुई हैं। अति प्राचीन काल में महाराज दुष्यंत व शकुंतला के पुत्र महा पराक्रमी वीर प्रतापी आदर्श चक्रवर्ती राजा हुए है। संभवतः संसार के यह प्रथम चक्रवर्ती राजा थे। महर्षि वेद व्यास ऋषि थे, अतः इसकी प्रमाणिकता में कोई संदेह नहीं है। सम्राट ऋषभ देव जी वा जिस ग्रन्थ में यह वर्णन है, उससे मैं परिचित नहीं हूँ। यदि वह महाभारत की ही तरह प्रमाणित और उससे पूर्वकालिक ग्रन्थ है तो उस पर विचार कर स्वीकार किया जा सकता है। यदि पता चले तो कृपया ग्रन्थ का नाम व सन्दर्भ सूचित करने की कृपा करें। आभारी होऊंगा। हार्दिक धन्यवाद।
महर्षि दयानंद की पूना प्रवचन व्याख्यान माला का इतिहास विषवयक ८ वा प्रवचन पढ़ते हुए निम्न नय तथ्य ज्ञान में आये हैं। सूचनार्थ प्रस्तुत है। “इसी समय में राजा इक्ष्वाकु ने विद्वान् लोगों को अपने साथ लेकर इस भरत-खण्ड में प्रथम बसाहत की। आर्यावर्त देश कहने से पश्चिम में सरस्वती अर्थात् सिन्धु नदी और पूर्व में ब्रह्मपुत्र अथवा दृषद्वती, उत्तर में हिमाचल, दक्षिण में विन्ध्यादि, इनके बीच का जो प्रदेश है उसी को आर्यावर्त कहते हैं। (सरस्वतीद्वषद्व्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्। तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्तं विदुर्बुधाः।। -मनृस्मृति 2/17,22)। यह आर्यावर्त कितना सुन्दर है, कितना सुपीक (जरखेज) है, और जलवायु भी यहां का कितना उत्कृष्ट है। इसमें छहों ऋतु क्रम से आते रहते हैं।
मनुस्मृति के श्लोकों (मनु. 1/35, 36) के प्रमाण से महर्षि दयानन्द ने इसी उपदेश में बताया है कि स्वायंभुव मनु का पुत्र मरीचि यह प्रथम क्षत्रिय राजा हुआ। इसके पश्चात् हिमालय के प्रदेश में छः क्षत्रिय राजाओं का परम्परा हुई। अनन्तर इक्ष्वाकु राजा राज्य करने लगा। इससे अनुमान कर सकते हैं कि सृष्टि के आदि में आरम्भ से सातवां राजा इक्ष्वाकु राजा था। इन प्रमाणों से यह कहा जा सकता है कि राजा इक्ष्वाकु से पहले से वा प्रारम्भ से ही पृथिवी के इस भू-भाग को भरत-खण्ड की संज्ञा प्राप्त हो चुकी थी।
मनमोहन जी , इस लेख से मुझे बहुत कुछ पता चला , आप इतनी मिहनत से ऐसे लेख लिखते हैं , आप का धन्यवाद करना बनता है .
नमस्ते श्री गुरमेल सिंह जी, आपको हार्दिक धन्यवाद। आज उपासना पर एक लेख लिखा है। यह लेख शायद आज या कल अपलोड हो जायेगा। कृपया इशे भी देखे और स्वतंत्र टिप्पणी दें। शुभकामनाओं सहित हार्दिक आभार।