कविता

पृथ्वी को उठाकर

-पृथ्वी को उठाकर


१-मेरी पत्नी
बर्तन
फ़िर फर्नीचर
या पूरे घर को
उठा कर
रोज रखती है
सही जगह पर

उसे पता है सब्जीयों के बारे मे
चांवल वह
ठीक पकते समय
गीला होने से पहले उतार लेती है
वह जानती है
मै इस समय
अख़बार पढ़ रहा होउंगा
धुप सीडियां ….
कब चढ़ती है
और सीढ़ियाँ …?
बरसात से फिसलती कब है
इतनासब वह जानती है
रद्धी का भाव –
पुराने कपड़ो के बदले
नये गिलास कितने मिलेंगे
२-वह पढ़ लेती है
मेरा उतरा हुआ -चेहरा
या
इन्द्रधनुष से छूटने को आतूर –
मेरी आँखों के तीर
बच्चो की नींद
घड़ी की तरह
वह भी नही थकती
वह समय से आगे है
सूरज की परीक्रमा
वो भी कर रही है
एक माँ
एक पत्नी
बेटी , बहू
बनकरउसे इतना व्यस्त देखकर
कभी -कभी
मुझे लगता है
घर को भर देने वाली उसकी
यह ममता-

आँगन मे छितर-आये
पौधों की शाखाओं की तरह -फैल कर
किसी
एक दिन-
पृथ्वी को उठाकर
तरबूज की तरह
अपने घर की
छत पर न
रख दे
— किशोर कुमार खोरेन्द्र

किशोर कुमार खोरेंद्र

परिचय - किशोर कुमार खोरेन्द्र जन्म तारीख -०७-१०-१९५४ शिक्षा - बी ए व्यवसाय - भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत एक अधिकारी रूचि- भ्रमण करना ,दोस्त बनाना , काव्य लेखन उपलब्धियाँ - बालार्क नामक कविता संग्रह का सह संपादन और विभिन्न काव्य संकलन की पुस्तकों में कविताओं को शामिल किया गया है add - t-58 sect- 01 extn awanti vihar RAIPUR ,C.G.

2 thoughts on “पृथ्वी को उठाकर

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    कविता अच्छी लगी .

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

Comments are closed.