यह हत्या नहीं स्त्रियों का सामूहिक नरसंहार है
छत्तीसगढ़ में नसबंदी के दौरान 14 स्त्रियों की मौत ने एक बार फिर सोचने को मजबूर किया कि हमारे देश में आम स्त्रियों की कीमत क्या है। न उनकी ज़िन्दगी का कोई मोल है न उनकी मृत्यु का कोई अर्थ ! हम ज़बरदस्त गैरबराबरी से जूझ रहे ऐसे संवेदनहीन और असभ्य समाज का हिस्सा जा रहे हैं जो वर्चस्व, सत्ता और प्रतिस्पर्धा को ही एक मात्र जीने का मूल मंत्र बना चुका है। अजीब ये है कि इन सबमें उसके सामने केवल स्त्री खड़ी है।
छत्तीसगढ़ के इस हादसे के परिपेक्ष में विषयों पर विशेष रूप से सोचना होगा। पहला यह कि स्वास्थ्य शिविर में जाकर इलाज कराने वाला तबका कौन है। यह समाज का वो वर्ग है जिसे सरकारी खानापूर्ति की भरपाई के लिए लक्ष्य-पूर्ति का साधन बना दिया जाता है। असुरक्षित और अस्वस्थ माहौल में सीमित संसाधनों के द्वारा चिकित्सा करना या शल्य क्रिया को अंजाम देना निश्चय ही अमानवीय अपराध है। अजीब है कि यह अपराध वैधानिक तरीके से हो रहा है क्योंकि शिविरों के हालात का अंदाजा जनसाधारण को है। निर्धन जनता या ऐसे क्षेत्र के निवासी जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है, इन स्वास्थ्य केन्द्रों और शिविरों पर निर्भर होते हैं और अपनी जान जोख़िम में डालने को मजबूर होते हैं।
समाज कल्याण से जुड़ी सरकारी योजनाओं के तहत लगने वाले नसबंदी शिविरों का सच किसी से छिपा नहीं है। इन शिविरों में एक-एक दिन में सौ-सौ ऑपरेशन किए जाते हैं । एक वरिष्ठ चिकित्सक होता है जिसके अंतर्गत कई प्रशिक्षु होते हैं जो यह काम निबटाते हैं। यह शिविर जहाँ भी लगता है वहाँ न तो आधुनिक ऑपरेशन थियेटर होता है न आपातकालीन चिकित्सा के लिए कोई यन्त्र न ही स्वच्छ वातावरण। यह हमारे भारत का सच है कि इन शिविरों में सिर्फ वही स्त्रियाँ या पुरुष जाते हैं जो आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर होते हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति ज़रा भी ठीक हो, भले ही वह दिहाड़ी मजदूर ही क्यों न हो, वह भी निजी अस्पताल में ही जाकर इलाज कराता है। इस सच से न तो हमारे देश की जनता इंकार कर सकती है न ही सरकार।
दूसरा विषय यह है जिस पर न सिर्फ स्त्रियों को सोचना होगा बल्कि हमारे समाज और हमारे पुरुष वर्ग को भी सोचना होगा। आख़िर स्त्रियाँ ही आबादी बढ़ाने और रोकने का दंड क्यों पाती है? औरतों की ही नसबंदी क्यों, पुरुष की क्यों नहीं? क्या यह नसबंदी पुरुषों के लिए ज्यादा सुरक्षित और कारगार नहीं है? क्यों आज भी भारत की तमाम वर्ग की महिलाएँ ही नसबंदी कराती हैं पुरुष नहीं? स्त्रियों की नसबंदी का ऑपरेशन पुरुषों की तुलना में जटिल और मुश्किल होता है। जबकि पुरुष की नसबंदी स्त्रियों की तुलना में बहुत सरल है जिसमें न तो कोई जटिल प्रक्रिया है न किसी तरह का कोई ख़तरा न ही ऑपरेशन के बाद लम्बे अवधि तक विश्राम की आवश्यकता।
आख़िर औरतों पर ही संतानोत्पत्ति और नसबंदी का सारा कारोबार आधारित क्यों है? क्या बिना पुरुष के स्त्रियाँ बच्चा पैदा करती हैं? जब पुरुष के बिना संतानोत्पत्ति संभव नहीं है फिर नसबंदी पुरुष क्यों नहीं कराते? न सिर्फ अशिक्षित बल्कि शिक्षित पुरुषों का भी मानना है कि नसबंदी कराने से पौरुष ताकत में कमी आ जाती है। जबकि वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुका है कि यह सच नहीं सिर्फ अज्ञानता है। पुरुष नसबंदी के कई फायदों में एक अहम् फायदा यह भी है कि किसी कारण से यदि फिर से संतान चाहे तो संतान संभव है। लेकिन स्त्री के मामले में ऐसा संभव नहीं होता है।
हमारी परम्पराओं का हमारे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । अपनी पढ़ाई के दौरान मुझे परिवार नियोजन विषय पर कुछ महिलाओं से बात चीत करने का मौक़ा मिला था जिसमें एक स्तब्ध करने वाला सच मेरे सामने आया। एक स्त्री ने बताया कि उसके पति के नसबंदी कराने के बाद भी उसे बच्चा हुआ। डॉक्टर ने कहा कि सामान्यतः ऐसा नहीं होता है लेकिन कभी-कभी कुछ अपवाद हो जाते हैं, जिसमें वे भी हैं। डॉक्टर के कहने के बाद भी उसका पति उसके चरित्र पर शक करता रहता है। एक दूसरी स्त्री जो काफी पढ़ी लिखी थी उसका कहना था कि अगर किसी कारण उसके पति का नसबंदी ऑपरेशन असफल हुआ और वह गर्भवती हो गई तो आजीवन उसे शक से देखा जाएगा। इससे बेहतर है कि स्त्री स्वयं ही ऑपरेशन करा ले। एक छोटा सा तो ऑपरेशन है आजीवन एक डर और इल्जाम से तो बचा जा सकता है। एक अविवाहित स्त्री जो बहुत आधुनिक थी, का कहना था दो बच्चे के बाद ऑपरेशन करा लो, क्या पता पति का ऑपरेशन सफल न हुआ तो एक और बच्चे का बोझ सहो, या फिर गर्भपात काराओ, इतने झमेले से तो अच्छा है कि स्त्री ही ऑपरेशन करा कर हमेशा के लिए एक झंझट से मुक्त हो जाए और पति के शक से भी छुटकारा रहेगा। यूँ तो सभी स्त्रियों की राय यही थी कि स्त्री को ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए अन्यथा फिर से गर्भवती होना या गर्भपात कराना पड़ सकता है।
इन सभी पहलुओं पर विचार करें तो कहीं न कहीं हमारा समाज, हमारी सोच, हमारी मान्यताएँ और परम्पराएँ इन सबके लिए दोषी है। हमारा पुरुष समाज जो स्त्री का चरित्र उसके बदन में खोजता है और उसके बदन पर ही अपना चरित्र गँवाता है फिर भी उस स्त्री के लिए एक ज़रा सा जहमत उठाना नहीं चाहता; जबकि पुरुष नसबंदी में न पीड़ा होती है न वक़्त लगता है, ऑपरेशन के एक घंटे के बाद ही पुरुष काम पर वापस जा सकता है। सरकारी प्रचार प्रसार के बाद भी पुरुष इस बात को समझ नहीं पाता कि नसबंदी के बाद भी उसकी यौन-शक्ति वैसी ही रहेगी। कोई भी पुरुष सहजता से ऑपरेशन नहीं कराता। यह सिर्फ अशिक्षित समाज का चेहरा नहीं बल्कि शिक्षित और प्रगतिशील बिरादरी का भी चेहरा है।
हमारे समाज की संकीर्ण मानसिकता का परिणाम है कि न सिर्फ वे 14 स्त्री मारी गई बल्कि 14 परिवार बिखर गया और उनके बच्चे माताविहीन हो गए। इस घटना को दुर्घटना या लापरवाही कह कर आरोपी चिकित्सकों को कटघरे में खड़ा किया जाए या कानूनी सज़ा दी जाए या फिर मृत स्त्रियों के परिवार को मुआवजा दिया जाए; पर क्या इन सबसे उन मृत औरतों को वापस लाया जा सकता है ? क्या स्त्रियों के साथ हो रहे इन अपराधों और अमानवीय अत्याचारों का खात्मा कभी संभव है? क्या यूँ ही शोषित वर्ग की शोषित स्त्रियों की बली चढ़ती रहेगी?
– जेन्नी शबनम
1-जब पुरुष के बिना संतानोत्पत्ति संभव नहीं है फिर नसबंदी पुरुष क्यों नहीं कराते? …….2-क्या यूँ ही शोषित वर्ग की शोषित स्त्रियों की बली चढ़ती रहेगी?
achcha likha jenni bahan aapne ……mai to chattisgarh ka hi hun …….aarop prtyaarop ki shrankhala chal padi …hal kuch nahi nikla …..aapne jo prashan uthaye ve vajib hai …….ek tarah se yah striyon ka hi shoshan hai …….
बहुत अच्छा लेख. आपने सही प्रश्न उठाया है.