तुम्हारी मुस्कराहट
तुम्हारी मुस्कराहट
धुप की तरह
दिन -भर
मेरे साथ
रहती है
बिखरा -बिखरा
हवा की तरह
अब
नही घूमता
सडको पर
किसी पेड़ की छांह मे
तुम्हारे स्पर्श का
अहसास
होता है मुझे…..
सो रहे से
प्लेटफार्म मे
बैठा हुआ
मै
अक्सर
सुना करता हूँ
मीलों दूर से आती हुई
उस
ट्रेन की आवाज
जिसमें तुम
बैठी हुई
अनमनी सी
शायद
किताब के पन्ने
पलट रही होती हो
केवल एक नाम पुकारती सी
लगती है
नदी
और
मै
पहाड़ की चोटी
पर
अटके हुए बादल सा
प्रति-उत्तर मे
तुम्हारे
नाम से
गूंज
जाया करता हूँ
रस्मो -रिवाजो से बनी
तुम्हारी देह तक
या
संस्कारों के रंग से
पुते तुम्हारे
घर तक
पहुँचना कठीन है
इसलिए
मैंने
मौन -व्रत ले रखा है
शायद प्यार
अंधा नही …….मौन होता हैं
किशोर कुमार खोरेन्द्र
प्यार वाकई मौन ही है, बोल कर तो अधिकार जताया जाता है।
प्यार निश्वार्थ देने का है नाम, कुछ लेकर देने को तो व्यापार बताया जाता है।
अच्छी रोचक कविता !
वाह वाह , बहुत खूब .