आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 14)
श्रीमती इन्दिरा गाँधी का चुनाव रद्द होने का समाचार मुझे दिल्ली में ही मिला था, जब मैं अपना इलाज कराने वहां गया हुआ था। इसके कुछ दिन बाद आपात स्थिति भी उस समय लगायी गयी थी, जब मैं दिल्ली से लौटकर आगरा आ गया था और अपनी कक्षाओं के शुरू होने का इन्तजार कर रहा था। आपात स्थिति की भयावहता का आभास उस समय मुझे नहीं था, लेकिन कुछ भूमिगत पत्र मेरे हाथ पड़ जाते थे, जिनसे यह सारी जानकारी मुझे मिली थी।
मैं जन्मजात जनसंघी होने के कारण (क्योंकि मेरे पिताजी भी जनसंघी थे) कांग्रेस विरोधी था ही, इस हालत में मैं उग्र सरकारी विरोधी हो गया। मेरे सभी सहपाठियों को मेरे विचारों की जानकारी थी, लेकिन साधारण छात्र होने के कारण मेरे विचारों को कोई गम्भीरता से नहीं लेता था। मुझे याद है कि इमर्जेन्सी (26 जून 1975 को) लगने के बाद जो 15 अगस्त आयी उसके कार्यक्रम के लिए मैं एक बहुत उग्र कविता लिख कर ले गया था, जिसकी पहली दो पंक्तियाँ निम्न प्रकार थीं-
लोकतंत्र भारत को इन्दिरा ने जागीर बनाया है।
अब कूद पड़ो रत्नाकर में लहरों से निमंत्रण आया है।।
लेकिन न जाने क्यों, उस दिन केवल झण्डारोहण हुआ और कुछ मिष्ठान बाँटने के बाद छात्रों को भगा दिया गया। अगर उस दिन सदा की तरह सभा होती और छात्रों को बोलने का अवसर मिलता, तो मैं अवश्य ही अपनी कविता सुनाता और जो परिणाम होता उसको सोचकर ही कँपकँपी आ जाती है। बाद में जब पिताजी ने यह कविता देखी और मेरा उद्देश्य उन्हें पता चला, तो मुझे बहुत डाँटा कि मैं क्यों बेवकूफी करने जा रहा था और उन्होंने कविता फाड़कर फेंक दी।
बाद में मेरी समझ में आया कि विरोध प्रकट करने के लिए इस तरह की उग्र शब्दावली आवश्यक नहीं है और वह दूसरे शब्दों में भी प्रकट किया जा सकता है। अतः 26 जनवरी, 1976 को मैं एक अन्य कविता लिखकर ले गया जिसका शीर्षक था ‘आह्वान’ और पहली पंक्ति थी-
है लहरों पर प्रतिबन्ध लगा, तूफान कहाँ से आयेगा?
यह कविता मैंने सुनायी थी और शायद अध्यापकों को भी मेरा आशय समझ में आ गया था, क्योंकि उस सभा के बाद समस्त छात्र वक्ताओं को इनाम बाँटे गये थे, केवल एक मुझे छोड़कर। लेकिन मुझे खुशी है कि कई अध्यापकों ने मेरी पीठ थपथपायी और छात्रों ने देर तक तालियाँ बजायीं थीं।
इसके बाद मेरे राजनैतिक विचारों और गतिविधियों पर विराम लग गया, क्योंकि मेरी इण्टर की बोर्ड की परीक्षाएं पास आ रही थीं। मैं इण्टर में प्रथम श्रेणी लाने के लिए कटिबद्ध था, क्योंकि इस पर ही मेरी छात्रवृत्ति पुनः प्रारम्भ हो सकती थी। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है, बल्कि ज्यादातर ऐसा ही होता है, कि हम जो सोचते हैं वह किन्हीं कारणोंवश पूरा नहीं हो पाता और हम ईश्वर या भाग्य को दोष देकर चुप हो जाते हैं अथवा बाह्य कारणों की तलाश करते हैं। मेरे मामले में भी ऐसा ही हुआ।
उस समय मैं 16-17 वर्ष का था। यह उम्र ऐसी होती है, जब आप न तो बच्चों में गिने जाते हैं और न वयस्कों में। यह उम्र आवारागर्दी, लापरवाही और मौजमस्ती के लिए आदर्श होती है। लड़कियों के इतिहास, भूगोल और गणित में रुचि जाग्रत हो जाती है और आप अज्ञात बातों को जानने के लिए और कुछ साहस भरा कार्य करने के लिए व्यग्र हो जाते हैं। मैं भी कोई अपवाद नहीं था।
मेरी ममेरी बहिन आरती उन दिनों कक्षा सात या आठ में पढ़ती थी। प्रायः मैं उसे हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, संस्कृत आदि विषय पढ़ाया करता था। हमारा घर भी मामाजी के घर के पास ही लोहामण्डी के नयाबाँस मौहल्ले में था। उसी मौहल्ले में आरती की एक सहेली थी, जिसका नाम सुविधा के लिए हम ‘नीता’ रख लेते हैं। उसका असली नाम बताना मैं उचित नहीं समझता। वह काफी सुन्दर है और एक अच्छे ब्राह्मण परिवार से है। आरती के साथ ही मैं कभी-कभी उसे भी पढ़ाया करता था। जब मैं इण्टर में पहुँचा तो क्या हुआ, कब हुआ और कैसे हुआ, यह तो मुझे मालूम नहीं, लेकिन मैं उसकी तरफ आकर्षित हो गया। आरती से मैं प्रायः उसके बारे में बातें किया करता था और उसकी प्रशंसा करता था। कभी-कभी मैं उससे बातें करने की भी कोशिश करता था, लेकिन शायद वह मेरी नजरों में आये परिवर्तन को पहचान गयी और मुझसे कन्नी काटने लगी।
कहावत है कि इस तरह की बातें छुपाने से भी नहीं छुपती हैं। अतः एक दिन यह बात सब पर प्रकट हो गयी कि मैं उससे बातें करने की कोशिश करता हूँ। मुझे काफी डाँट पड़ी, लेकिन क्योंकि मैंने प्रत्यक्षतः कुछ नहीं किया था। अतः मुझे कोई सजा नहीं दी गयी, हालांकि उसकी धमकियाँ काफी दी गयी थीं। लेकिन इन धमकियों से लड़के प्रायः नहीं डरते और ज्यादा ढीठ हो जाते हैं। मेरे मामले में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ। प्रत्यक्षतः मैंने आरती से उसके बारे में बातें करनी बंद कर दीं, लेकिन मन ही मन मैं उसे और ज्यादा चाहने लगा था। ‘नीता’ का नाम हर समय मेरे दिमाग में घूमता रहता था। लेकिन अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए मैं कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं करना चाहता था या कहिये कि मुझमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं थी।
मुझे अपनी छात्रवृत्ति बचाने की और इण्टर में प्रथम श्रेणी लाने की भी चिन्ता थी, अतः मैंने अपना ध्यान पढ़ाई में लगाना तय किया। मेरी बोर्ड की परीक्षाएं पास थीं। इसलिए मैं प्रतिदिन एक-दो घण्टे घर पर पढ़ने लगा। हालांकि यह समय ज्यादा नहीं है, क्योंकि प्रायः यह माना जाता है कि यदि बोर्ड की परीक्षाओं की तैयारी रात-रात भर जाग कर भी की जाये, तो भी कम है। लेकिन मेरे लिए एक-दो घण्टे पढ़ना भी बहुत ज्यादा था, क्योंकि इससे पहले मैंने कभी प्रतिदिन एक घण्टा भी पढ़ाई नहीं की थी, चाहे मेरी बोर्ड की परीक्षाएं ही क्यों न हों। इसके विपरीत मैं परीक्षाओं के दिनों में भी मानसिक आराम के लिए वाचनालयों में जाता रहता था और नित्य अखबार भी पढ़ा करता था। वह आदत इस बार भी बनी हुई थी, लेकिन अन्तर सिर्फ इतना था कि इस बार मैं 1-2 घण्टे प्रतिदिन पढ़ाई भी कर रहा था।
अपनी परीक्षाओं तक मैंने इतनी तैयारी कर ली थी कि मुझे विश्वास था कि कम से कम प्रथम श्रेणी के अंक तो आ ही जायेंगे। चाहे 70 प्रतिशत न आयें। यह बात और थी कि ‘नीता’ का नाम पढ़ते समय भी मेरे दिमाग पर चढ़ा रहता था और मैं पढ़ाई में उतना एकाग्र नहीं हो पाता था, जितना होना चाहिए था।
इण्टर का मेरा परीक्षा केन्द्र साकेत इण्टर कालेज, शाहगंज में था, जो कि लोहामण्डी से मुश्किल से एक-डेढ़ किमी दूर है। अतः अब मुझे आने-जाने के लिए किसी साइकिल वाले की जरूरत नहीं थी। मैं नित्य पैदल ही जाता था और उधर से भी प्रायः पैदल आता था, हालांकि कभी-कभी किसी सहपाठी की साइकिल पर भी बैठ लेता था। पर्चे मेरी आशा के अनुरूप नहीं हुए, फिर भी इतने सन्तोषजनक अवश्य हो गये थे कि मुझे प्रथम श्रेणी आने की पूरी उम्मीद थी। मुझे गणित पर सबसे ज्यादा आशा थी।
लेकिन जब परिणाम आया तो मैं बहुत दुःखी हुआ, क्योंकि मात्र 15 अंकों से मेरी प्रथम श्रेणी रह गयी थी। गणित में मेरी आशा के सर्वथा विपरीत 100 में से मुझे कुल 65 अंक मिले थे, जबकि मैंने कम से कम 85 अंकों की उम्मीद की थी। अन्य विषयों में भी मेरे अंक आशा से कम थे लेकिन उतने नहीं। गणित में पड़े इन 20 अंकों के घाटे से ही मेरी प्रथम श्रेणी मारी गयी और अपनी जिन्दगी में पहली और अन्तिम बार मुझे मात्र द्वितीय श्रेणी से संतोष करना पड़ा। मेरे परिणाम से मेरे परिवार वाले ज्यादा खुश तो नहीं थे, लेकिन दुःखी भी नहीं थे, क्योंकि मेरे अंकों का प्रतिशत 57 था, जो प्रथम श्रेणी से कुछ ही कम होता है। लेकिन मैं स्वयं इनसे संतुष्ट नहीं था। जब मैंने प्रथम श्रेणी प्राप्त करने में अपनी असफलता का विश्लेषण किया तो मुझे इसके कुछ कारण दिखाई पड़े।
मेरे विचार से सबसे पहला कारण यह था कि हाईस्कूल की भारी सफलता के पश्चात् मुझमें अहंकार पैदा हो गया था। शायद ईश्वर ने उसी की सजा मुझे दी थी। दूसरा कारण मुझे यह नजर आया कि मैं अपनी पढ़ाई पर उचित मात्रा में ध्यान नहीं दे सका। एक कहावत है- ‘असफलता केवल यही सिद्ध करती है कि सफलता का प्रयत्न पूरे मन से नहीं किया गया।’ मेरे ऊपर यह कहावत बिल्कुल सही उतरी थी। मैं अपनी पढ़ाई में पूरी तरह एकाग्र शायद इसलिए नहीं हो सका कि मेरा ध्यान उन दिनों राजनीति पर तथा ‘नीता’ पर ज्यादा था। अतः यह आश्चर्यजनक नहीं था कि मेरे प्रयत्न अधूरे रह गये।
लेकिन तीसरा और शायद ज्यादा महत्वपूर्ण कारण मेरे विचार से यह था कि हमारे इण्टर के अध्यापक बहुत ही अयोग्य थे और उचित तरीके से पढ़ाने में असमर्थ थे। न तो वे खुद अच्छी तरह पढ़ा सके और न हमें स्वयं पढ़ने के लिए प्रेरित कर सके। अध्यापक के खराब या अच्छे होने का सीधा प्रभाव छात्रों की योग्यता और प्रदर्शन पर अवश्य पड़ता है। यह बात मेरे अनुभव से कई बार सिद्ध हो चुकी है।
इतने पर भी मैं कहूँगा कि इस मामूली झटके को मैंने एक चेतावनी के रूप में ग्रहण किया और यह निश्चय कर लिया कि राजनीति में अपनी रुचि का या किसी लड़की को प्यार करने या न करने का कोई प्रभाव मैं अपनी पढ़ाई पर नहीं पड़ने दूँगा। मैंने अपने इस निश्चय का दृढ़तापूर्वक पालन किया और उससे आगे चलकर मुझे बहुत लाभ हुआ, हालांकि मैं अतिरिक्त गतिविधियों में और ज्यादा व्यस्त रहने लगा था।
उन दिनों मेरी रुचि शेरो-शायरी की तरफ भी हो गयी थी। इसकी शुरूआत इस तरह हुई कि जब मैं कानपुर में था, तो वहाँ भाई साहब के पास महात्मा आनन्द स्वामी सरस्वती द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘भक्त और भगवान’ थी, जिसमें आध्यात्मिक बातों को सरलतम उदाहरणों और उर्दू-फारसी के शेरों के साथ प्रस्तुत किया गया था। उर्दू शायरी की इस गहराई और माधुर्य से मैं चमत्कृत था, क्योंकि अब तक मैं उर्दू शायरी को मात्र शराब और इश्कबाज़ी का वर्णन मानता था। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मेरी रुचि उर्दू शायरी में पूरी तरह जाग्रत हो गयी। हालांकि तब मैं उर्दू को केवल देवनागरी लिपि में ही पढ़ पाता था। अरबी लिपि मैंने बाद में सीखी।
कानपुर वाले भाई साहब ने चलते समय मुझे एक डायरी उपहार में दी थी, जिसका सर्वप्रथम उपयोग मैंने शेरों को नोट करने में किया। मैं रोज वाचनालय जाता ही था। जब भी किसी जगह कोई अच्छा सा शेर छपा या लिखा देखता, तो तुरन्त उसे नोट कर लेता। कभी-कभी रिक्शों के पीछे भी अच्छे-अच्छे शेर लिखे हुए मिलते थे, उन्हें भी मैं लिख लेता था। रिक्शों पर से शेर लिखने के लिए कई बार मुझे रिक्शों के पीछे दौड़ना पड़ता था। कभी-कभी रिक्शों पर काफी मनोरंजक शब्द या वाक्य लिखे रहते थे, जिनको मैं याद कर लेता था और अपने मित्रों को सुनाया करता था। कुछ मनोरंजक शब्द और वाक्य ये हैं – ‘फिर वही दिल लाया हूँ’, ‘बचके निकल जा’, ‘एक बार जरूर मिलूँगा’, ‘चमचों से सावधान’, ‘पहिए के संग मत लग, पहिया छोड़ देगा पीछे’, ‘सड़क-सड़क के राजा, लम्बे रोड पे आजा’ इत्यादि- इत्यादि।
चित्र बनाने में मेरी रुचि बचपन से ही थी। जब भी मेरा मन होता था मैं रबड़ पेंसिल लेकर किसी एकान्त स्थान पर बैठ जाता था और तरह-तरह के चित्र बनाया करता था। कई बार मैंने रंगीन चित्र भी बनाये थे। कार्टून बनाना मेरा शौक था, लेकिन उचित प्रोत्साहन न मिलने से वह समाप्त हो गया। मेरा केवल एक कार्टून अब तक छपा है जो ‘बाल भारती’ नामक पत्रिका में छपा था और जिसके पारिश्रमिक स्वरूप मुझे 20 रुपये भी प्राप्त हुए थे।
वाचनालय में उन दिनों नेशनल हैराल्ड (National Herald) नामक अंग्रेजी अखबार आया करता था, जिसमें हर रविवार को पत्र-मित्र बनाना चाहने वालों के पते छपा करते थे। मैंने भी पत्र-मित्र बनाने के लिए अपना पता उस कालम में तीन बार छपवाया था। मेरे कई मित्र बने भी और उनमें कई मेरे घनिष्ट मित्र बन गये। इनके बारे में आगे लिखूँगा।
(जारी…)
सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बधाई। मैंने भी अपने जीवन काल में महात्मा आनंद स्वामी जी की भक्त और भगवान, एक ही रास्ता, उपनिषदों का सन्देश, यज्ञ प्रसाद, सत्यनारायण व्रत कथा आदि अनेक पुस्तकें पढ़ी है। मैंने दिसंबर सन १९७५ में महात्मा आनंद स्वामी जी के प्रवचन भी सुने हैं. दिल्ली मैं मंदिर मार्ग स्थित जिस आर्य समाज, अनारकली के जिस कमरे में वह रहते थे, उसमे एक रात्रि शयन करने का अवसर भी मिला है। उनकी प्रेरणा से पंजाब के एक कपडा व्यापारी बाबा गुरमुख दास जी ने देहरादून में वैदिक साधन आश्रम, तपोवन की स्थापना की थी. यहाँ सन १९७३-७५ में महात्माओं के प्रवचन सुन कर मैं उनकी विचारधारा में दीक्षित हुआ। आपका लेख इस उक्ति को चरितार्थ कर रहा है कि मेरा जीवन एक खुली किताब है।
दिलचस्प कथा , आप तो हरफन मौला थे और हैं .
सही कहा, भाई साहब. सब ऐसा कहते हैं. 🙂 आभार !
padha …..utsukta bani hui hai …..
धन्यवाद, खोरेंद्र जी. पढ़ते जाइये.