एषणा
एषणा का अर्थ है-कामना, इसमें मुख्यतः विवेक का अभाव रहता है। जिस व्यक्ति के मन में सदा कामनाएं बनी रहती हैं, वह किसी भी कार्य या सिद्धान्त पर नहीं टिक सकता है। एषणाएं मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती हैं-वित्तैषणा, पुत्रैषणा और लोकैषणा। मनुष्य योनि का उद्देश्य भोग के साथ योग है। इन समस्त भोगों का आधार धन- समपत्ति है। इसके बिना जीवन सम्भव नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है ‘भूखा व्यक्ति कौन सा पाप नहीं करता है’ परन्तु हम इस दुनिया में पाते हैं कि पेट भरे व्यक्ति भूखों से अधिक पाप करते दिखाई देते हैं।
वेद आदि शास्त्रों में पुरुषार्थ करते हुए धन कमा कर ऐश्वर्य प्राप्त करने पर बल दिया गया है और यह कहा गया है कि धन का उचित उपयोग और उपभोग करना चाहिए। कठोपनिषद में कहा गया है कि धन-समपत्ति से मनुष्य कभी तृप्त नहीं होता है। पुत्रैषणा का अर्थ है सन्तान की इच्छा। हम न केवल सन्तान की इच्छा करते हैं अपितु यह भी चाहते हैं कि उसके लिए भी धन-समपत्ति का अंबार लगा कर इस संसार से विदा हों। संसार के सारे भोग मैं और मेरी सन्तान आदि के लिए हों। जिन सुख-सुविधाओं और ऐश्वर्यों से हम वंचित रहे हैं, आने वाली पीढियों को ऐसा बनायें कि वो हमें वह सब प्राप्त कराकर अमर कर देंगी।
एैसी ही एक अमरता की कामना है- लोकैषणा जिसका अर्थ है यश, ख्याति, मान-सम्मान आदि की चाह करना। शास्त्रों में परोपकार और दान आदि की महिमा बतायी गयी है परन्तु साथ ही इसका आडम्बर वर्जित किया गया है। इस कामना के वशीभूत व्यक्ति अपने सारे कार्य इस प्रकार लोगों के सामने प्रचारित करते हैं कि उनको सम्मान मिले। वे वर्तमान समय की प्रशंसा से ही सन्तुष्ट नहीं रहते अपितु चाहते हैं कि मरने के बाद भी उनकी मूर्तियां चैराहों पर स्थापित रहें। धर्मपूर्वक जिस लोकैषणा की पूर्ति की जाती है उसे हम लौकिक दृष्टि से समाज के लिए हितकारी मान सकते हैं क्योंकि सार्वजनिक उपकार के सारे कार्यों के मूल में यही रहती है। शास्त्रों में एषणाओं को मोक्ष मार्ग में पड़ने वाली खाई बताया गया है। एषणाओं का त्याग करके ही आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ते हुए ब्रह्म की प्राप्ति की जा सकती है।
कृष्ण कान्त वैदिक
मुझे लगता है कि तीनो ऐषणाओं से युक्त मनुष्य की प्रवृति पाप में होती है। धर्म जो कि वेदो में निरूपित है, मनुष्य की ऐषणाओं को नियंत्रित कर मनुष्यों को पुण्य मार्ग पर चलाता है। धार्मिक मनुष्य ईश्वर का ध्यान, वायु शुद्धि के लिए अग्निहोत्र हवन वा माता – पिता तथा आचार्यों की सेवा से धर्म का संचय कर अपने जीवन को सफल करता है। लेखक को साधुवाद एवं बधाई।
अच्छा लेख .