धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मातृ देवो भव

माता की महिमा वेद, स्मृति, पुराण, इतिहास व अन्य ग्रन्थों में वर्णित है। शतपथ ब्राह्मण में माता, पिता और आचार्य के विषय में कहा गया है- ‘मातृमान् पितृमाना चार्यवान्’ तथा छान्दोग्य उपनिषद् में ‘आचार्यवान् पुरुषो वेद’ कहा गया है। इस प्रकार किसी के व्यक्तित्व के निर्माण में इन तीनों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है परन्तु माता का स्थान […]

धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

याज्ञिक परम्परा में महर्षि दयानन्द का अप्रतिम योगदान

उवट, महीधर और सायणाचार्य आदि भाष्यकारों का विचार था कि वेद में वर्णित अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र आदि कल्पित स्वर्ग में रहने वाले देवता हैं। ये देवता पृथ्वी पर दिखाई देने वाले अग्नि, वायु और जलादि पदार्थों का और आकाश में दिखाई देने वाले सूर्य, चन्द्रमा और उषा आदि के अधिष्ठात्री देवता माना जाते हैं। […]

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वेदों के अनुसार वास्तविक गोवर्धन पूजा

वेद के अनेक मंत्रों में गोदुग्ध से शरीर को शुद्ध, बलिष्ठ और कान्तिमान् बनाने का वर्णन मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि वैदिक गृहस्थ को गौ और उसके द्वारा दिए गए दूध आदि पदार्थ कितने अधिक प्रिय हैं। हम वेदादि शास्त्रों में यह पाते हैं कि न केवल प्रत्येक गृहस्थ अपने लिए परमेश्वर से गोधन की […]

सामाजिक

सहिष्णुता

सहिष्णुता का अर्थ है- सहनशीलता या क्षमाशीलता। निंदा, अपमान और हानि में अपराध करने वाले को दंड देने का भाव न रखना और अन्य लोगों के धार्मिक कर्मकाण्ड, खानपान और रीति-रिवाजों को सम्मान देते हुए उनसे प्रेम पूर्वक व्यवहार करना सहिष्णुता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, सहिष्णुता उनका विशेष गुण रहा है। […]

सामाजिक

क्षमाशीलता

क्षमाशीलता का अर्थ है निंदा, अपमान और हानि में अपराध करने वाले को दंड देने का भाव न रखना। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनका यह विशेष गुण रहा है। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं जिनमें क्षमा का मुख्य स्थान है। आपस्तम्ब स्मृति के अनुसार- ‘क्षमागुणो हि जन्तूनामिहामुन्न सुखप्रदः’ […]

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अथर्ववेद के आलोक में आयुर्वेद विमर्श

शतपथ ब्राह्ममण ने यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में प्राण को अथर्वा बताया है। इस प्रकार प्राण विद्या या जीवन-विद्या आथर्वण विद्या है।1 हमें गोपथ ब्राह्ममण से यह पता चलता है कि ब्रह्म शब्द भेषज और भिषग्वेद का बोधक है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जो अथर्वा है, वह भेषज है, जो […]

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मूर्ति पूजा विमर्श

संसार में मूर्ति पूजा का इतिहास ज्ञात करने पर पता चलता है कि जैन-बौद्ध-काल से पूर्व इसका आरम्भ नहीं हुआ था। चीन के प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता और यात्री फाहियान ने सन् 400 ई0 में भारत की यात्रा की थी। उसने देखा था कि पटना में प्रतिवर्ष दूसरे मास के आठवें दिन मूर्तियों की एक सवारी […]

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निर्लिप्तता

निर्लिप्तता का अर्थ है सांसारिक मायामोह से दूर रहना। यह कर्म के बन्धन से निवृत्ति भी है। गीता में एक अपूर्व युक्ति बताई गई है, जिससे मनुष्य शुद्ध, पवित्र और निर्लिप्त या निष्कलंक बन सकता है। यह युक्ति है कर्मों को ब्रह्म में अर्पण करना अर्थात् सब कर्म परमेश्वर को समर्पित करके आसक्ति रहित होकर […]

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मोक्ष मार्ग का प्रथम सोपान है स्वाध्याय

सु$आङ् अधिपूर्वक इड्-अध्ययने धातु से स्वाध्याय शब्द बनता है। स्वाध्याय शब्द में सु, आ और अधि तीन उपसर्ग हैं। ‘सु’ का अर्थ है उत्तम रीति से ‘आ’ का अर्थ है आद्योपान्त और ‘अधि’ का अर्थ है अधिकृत रूप से। किसी ग्रन्थ का आरम्भ से अन्त तक अधिकारपूर्वक सर्वतः प्रवेश स्वाध्याय कहलाता है। आचार्य यास्क द्वारा […]

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आरण्यक ग्रन्थों की आवश्यकता

आरण्यक ग्रन्थ की आवश्यकता क्यों अनुभव की गई थी? ‘आरण्यक’ शब्द का अर्थ है- अरण्य में होने वाला। वन में होने वाले अध्ययन. अध्यापन, मनन, चिन्तन से सम्बन्धित विषयों का संकलन जिस ग्रन्थ में किया गया हो उसे आरण्यक कहते हैं। आरण्यक ग्रन्थों की रचना नैसर्गिक प्रक्रिया के अनुसार ब्राह्मण ग्रन्थों के बाद हुई है। वेदों […]