दो रस्सियों सा……
दो रस्सियों सा गूँथ कर इक मजबूत और अटूट डोर बन जायें
ज़मीं आसमाँ सा मिलकर क्षितिज का आखरी छोर बन जायें
तम के सागर में चाँदनी का अमृत भर गया चाँद सा मुखड़ा
पहली किरण और अंतिम ओस के मिलन का भोर बन जायें
आजीवन मन में हम दोनो एक दूसरे को पुकारते ही रह गये
मौजों के कोलाहल में साहिल की खामोशी का शोर बन जायें
वन की घाटियों मे गूँज उठे जिनकी दूर दूर तक मधुर आवाज़
तुम नृत्य करती मोरनी हम तुम्हारे प्रेम में मोर बन जा जायें
तुम्हें याद करते ही आप से आप मैं लिख लिया करता हूँ ग़ज़ल
जो लगता नही इश्क़ पर कभी आओं वही हसीन ज़ोर बन जायें
किशोर कुमार खोरेंद्र
बहुत खूभ .
shukriya vijay ji
वाह वाह ! बहुत सुन्दर ग़ज़ल !