अभिशप्त बचपन
है कैदियों जैसा बचपन
उस नन्ही मासूम का
दिवारों के अलावा
कोई भी तो नही जो
जो सुने उसकी
सिसकियॉ
ना दोस्त,न रिश्तेदार
किस्से करे बातें
किसके संग
करे हंसी ठिठोली
मां की उंगली पकड़
पुछ्ती है अक्सर
कहां है?
उसके दादा–दादी
नाना – नानी?
है सुनना परियों की कहानी
क्यों दरवाजे पर
चौबीसों घंटे
चढी रहती कुंडी
है उसका भी मन
खेले बाहर बच्चोंं संग
पर माँ ने तो
जुबान पर
ताला लगा रखा है
बात बात पर बहाती आंसू
कैसे बताए कि
कच्ची वय में
एक दिन बरसा था
काला पानी
बेहिसाब दुख दर्द ने
काट डाले थे
जिंदगी से अनुप्रास
अपराध किसी और ने किया
सजा मां बेटी
भुगत रही
मां की जिंदगी तो
बीत जाएगी जैसे तैसे
पर बेटी क्या करे,कहां जाए
हमारा संविधान भी
ऐसे बच्चों के
भविष्य के प्रश्न पर
है मौन
समाज भी
इन्हे नहीं अपनाता
प्रेम,सहिष्णुता की
जगह तिरस्कार और
उपेक्षा ही देता
एक तरफ तो
हम बच्चों को
राष्ट्र निर्माता मानते हैं
दुसरी तरफ
इन्हें छोड़ देते
जीने को
लाचार, बेबस
अभिशप्त बचपन !!
****भावना सिन्हा ****!!!!
बचपन के बारे में मार्मिक कविता.
अत्ति दुखद .
maarmik