कविता

अंधेरों का महासमुद्र

तुम यूँ ही रूठ जाते हो
हरदम……
जरा सोचो ,कितना मुश्किल है
संभालना खुद के जज्बातों को
जैसे एक उम्र बीत जाती है
अंधेरों से होकर …..
मेरी जिन्दगी में रौशनी से तुम
पर अदृश्य …..
अंतिम और एकमात्र जिसके बाद शायद
कुछ भी नहीं है ……
न कोई स्मृति है न ही कोई स्वप्न
तुम ही तुम हो ….
फिर क्यूँ बढ़ाते हो दरम्यानी फासला
इन बढ़ते फासलों से फैलने लगता है
मन के भीतर
अँधेरे का महासमुद्र ……
मैं खोजती हूँ इधर-उधर
बिखरे शब्दों की स्मृतियों को
जो पढ़ तो सकती हूँ पर
दिखला नहीं सकती ……..!

– संगीता सिंह ‘भावना’

संगीता सिंह 'भावना'

संगीता सिंह 'भावना' सह-संपादक 'करुणावती साहित्य धरा' पत्रिका अन्य समाचार पत्र- पत्रिकाओं में कविता,लेख कहानी आदि प्रकाशित

3 thoughts on “अंधेरों का महासमुद्र

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी लगी .

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