झड़ते पत्ते
मद्धम मद्धम पवन चली
मुस्काई बाग़ की कली कली
छायी नवभोर लालिमा प्रखर
वृक्षों की डालियाँ गयीं निखर
रैनबसेर से पर फैलाकर
निकले सब पंछी गा गाकर
पतझड़ से पहले की भोर
मन हरती निश्चित चित चोर
फिर एक पात गिरा पेड़ से
वही बरगद विशाल अधेड़ से
जिसकी डाली पर तीतर चार
लायी थी जिनको संग बहार
उसी डाल का एक और पात
उसपर पतझड़ का पड़ा घात
फिर धीरे धीरे अंगडाई लेकर
झंझावार उठा कुछ ऊपर
आयी आंधी की पवन प्रथम
जैसे सुभोर अब गयी हो थम
चंचल चकोर फिर उड़ उड़ भागे
घोसल के तीतर भी जागे
दूजी हवा जब आई झकझोर
मिटटी धूल लिए घनघोर
कुछ पत्ते फिर और गिरे
जैसे भूमि पर गए सिरे
जैसे फिर कंपित होकर झार
हिल हिल गिरा रहे हर बार
लगे चाटने धूल फिर पात
मौसम चितचोर हुआ कुख्यात
डाली डाली से गिरते पत्ते
उड़ उड़ जहं तंह फिरते पत्ते
कभी सोचता मैं भी ऐसे
झड़े पेड़ों से पत्ते जैसे
मेरी आँखों के भी सपने
लगते थे जो मेरे अपने
इसी तरह एक पतझड़ आया
जिसने सपनो का हाथ छुड़ाया
इसी तरह फिर बिखरे थे गिरकर
नैराश्य मेरे मन भरा था घिरकर
हो चली है जैसे इन वृक्षों की डाली
मेरा मन हो चला था खाली
फिर किसी बसंत की आस लिए
फिर होने हरित विश्वास लिए
नवऋतु फिर नव आएगी
और बाग़ हरा कर जायेगी
मैं सपने पुनः सृजन कर लूँगा
प्रकृति की भांति वरण कर लूँगा
नव नवीनता की नव आस
फिर उपजाऊँगा नवविश्वास!
____सौरभ कुमार दुबे
गहरा अर्थ लिए सुन्दर कविता !
very nice poem .