आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 16)
सांख्यिकी और अर्थशास्त्र के शिक्षकों के विपरीत हमारे गणित के शिक्षक बहुत ही औसत दर्जे के थे केवल एक अपवाद को छोड़कर। अपवाद थे श्री नन्द किशोर शर्मा, जो लम्बे, पतले और दढ़ियल होने के कारण मार्क्सवादी नजर आते थे और छात्रों में ‘नन्दू’ नाम से लोकप्रिय थे। वे बहुत अच्छा पढ़ाते थे, उनका पढ़ाने का तरीका भी एक ही था। आधुनिक बीजगणित जैसे कठिन विषय को भी सरलतम शब्दों में समझा देते थे। वे ज्यादातर बातें बोर्ड पर लिख देते थे, अतः मुझे समझने में कोई मुश्किल नहीं होती थी।
मेरे एक और अध्यापक, जिन्हें ठीक कहा जा सकता है वे थे श्री जगदीश चन्द्र चतुर्वेदी, जो कुछ मोटे होने के कारण लड़कों द्वारा ‘गोल्टा’ उपनाम से जाने जाते थे। वैसे वे अच्छा पढ़ाते थे, लेकिन कुछ गुस्सेबाज और तुनुकमिजाज भी थे, अतः कुछ लड़के उन्हें परेशान करने में रुचि लेते थे। मुझे याद है कि एक बार एक लड़के ने उनके पीरियड से ठीक पहले बोर्ड पर तथा उनकी मेज पर कई जगह ‘गोल्टा’ लिख दिया था। जाने कैसे उन्होंने उस लड़के को पहचान लिया और बाद में अपने कमरे में बुलाकर उसे बहुत डाँटा।
गणित के अन्य दो शिक्षक लड़कों में बहुत ही अलोकप्रिय थे। एक थे श्री भगवान स्वरूप वत्स, जो बहुत ही सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे, मगर काफी कठोर और अनुशासनप्रिय थे। यह बात और है कि कोई भी लड़का उनसे डरता नहीं था और लड़कों ने उनका नाम ‘चमनलाल’ रख छोड़ा था। वे पढ़ाने के मामले में बहुत कच्चे थे और प्रायः लड़कों को बोर किया करते थे। इससे ऊबकर आधे से ज्यादा लड़के उपस्थिति देने के बाद ही उनकी कक्षा से खिसक जाते थे।
सबसे अधिक अलोकप्रिय थे श्री प्रेमदयाल नारंग, जो लड़कों में ‘मामा’ उपनाम से कुख्यात थे। वे न तो अनुशासन प्रिय थे और न अच्छा पढ़ाते ही थे, लेकिन लड़कों को गैर जरूरी लैक्चर अवश्य पिलाया करते थे। पूरे काॅलेज में कोई भी लड़का उनसे खौफ नहीं खाता था और प्रायः कुछ लड़के उनका अपमान करने का मौका ढूँढते रहते थे। उनकी कक्षा में लड़के आवाजें निकाला करते थे, चाक आदि फेंकते थे और कागज के जहाज बनाकर उड़ाया करते थे तथा बीच में से भाग भी जाते थे। बाद में वे स्वयं लड़कों से बहुत तंग आ गये थे इसलिए उपस्थिति लेने के बाद ही कह देते थे कि भाई, जिसको जाना हो अभी चला जाय। इसका परिणाम यह होता था कि हमारे जैसे 10-12 लड़कों को छोड़कर, जो केवल पढ़ने के लिए ही काॅलेज आते थे, बाकी लड़के वाकआउट कर जाते थे और कक्षा प्रायः खाली हो जाती थी।
गणित के ऐसे स्टाफ के कारण मुझे गणित जैसी प्रिय विषय से काफी अरुचि हो गयी थी, जिसका प्रभाव मेरे अंकों पर पड़ना ही था और मैं गणित में मुश्किल से 65 प्रतिशत अंक ला सका।
बी.एससी. में पढ़ने के हमारे वे दिन बहुत ही मौजमस्ती के दिन थे। हमेशा की तरह मैं पैदल ही काॅलेज जाता था, जो हमारे घर से मुश्किल से एक-सवा किलोमीटर दूर था। काॅलेज स्टूडेन्ट कहलाने का गर्व और काॅलेज का उन्मुक्त वातावरण हमें बरबस कालेज खींच लाता था। इसके अतिरिक्त पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों में भी मेरी रुचि थी। अपने साथियों में मैं काफी लोकप्रिय था और आश्चर्यजनक रूप से पिछली कक्षाओं के विपरीत यहाँ मेरा किसी से झगड़ा भी नहीं चलता था। इसका परिणाम यह हुआ कि पिछली कक्षाओं में मैं जहाँ औरों से अलग-थलग रहता था, वहाँ इन कक्षाओं में एक महत्वपूर्ण छात्र की तरह भाग लेता था। लड़के प्रायः मुझसे शेर सुनाने का आग्रह किया करते थे, जिस मैं पूरा करता था। कभी-कभी अपनी रची हुई कविताएं भी सुनाता था। मुझे याद है, एक बार मेरे एक घनिष्ट मित्र और सहपाठी श्री रामेश्वर सिंह सोलंकी थे, जो बाद में गणित में एम.एससी. करने लगे थे, मेरी एक कापी में चुपचाप लिख दिया था-
मेंहदी रंग देती है सूख जाने के बाद।
यार तेरी याद आती है तेरे जाने के बाद।।
हाँ, अपनी सहपाठिनियों के साथ मैं इतना घनिष्ट नहीं था। यों कभी-कभी काम पड़ने पर हम बातें कर लेते थे, लेकिन बाकी समय अलग-अलग ही बने रहते थे। कुछ लड़के, जो लड़कियों से घनिष्टता बनाना चाहते थे, हमारे समूह में व्यंग्य के पात्र समझे जाते थे।
हमारी कक्षा में चार लड़कियाँ थी, जो गणित तथा सांख्यिकी की कक्षा में हमारे साथ पढ़ती थी। अर्थशास्त्र विषय उनके पास नहीं था, वे भौतिक विज्ञान की छात्राएं थीं। अर्थशास्त्र विषय के घंटों में अलग-अलग बैठती थीं। सेंट जाॅह्न्स काॅलेज आगरा की महात्मा गाँधी रोड के दोनों तरफ बना हुआ है। एक तरफ की इमारतों में गणित, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान तथा जीव विज्ञान की कक्षाएं लगती थीं तथा दूसरी ओर की इमारत में, जो कि मुख्य इमारत थी, अन्य सभी विषयों की कक्षाएं लगती थीं। अतः प्रायः हर घंटे के बाद हमें सड़क के इस ओर से उस ओर जाना पड़ता था। इसमें लगभग दो मिनट लगते थे, लेकिन इन्हीं दो मिनटों में हमारी सारी बोरियत दूर हो जाती थी और अगले घंटे में पढ़ने के लिए हम ताजा दम हो जाते थे।
हमारी सहपाठिनियों में सबसे तेज थी कु. नीलम खन्ना, जो पंजाबी थी, कुछ मोटी होने के कारण लड़कों द्वारा पीठ पीछे ‘मोटी’ कही जाती थी। वह काफी सुन्दर और स्मार्ट थी। उसका चेहरा लगभग तीन साल की बच्ची जैसा था। विशेष रूप से सांख्यिकी कक्षा में वह बहुत खिलखिलाया करती थी जो हमें बहुत प्यारी लगती थी। उसकी मासूम खिलखिलाहट की मुझे आज भी बहुत याद आती है। वह काफी होशियार भी थी और गणित में उसके अंक मुझसे काफी ज्यादा थे। बी.एससी. करने के बाद वह गणित में एम.एससी. करने चली गयी थी और फिर वहीं से पी.एचडी. कर रही थी। आजकल वह कहाँ पर है यह मुझे ज्ञात नहीं है। लेकिन पता चला है कि किसी डाक्टर से विवाह करके बम्बई चली गयी है।
मेरी दूसरी सहपाठिनी थी कु. सुनीता मल्होत्रा। वह भी पंजाबी थी और कक्षा में तथा कक्षा के बाहर नीलम के साथ ही रहा करती थी। इसके बावजूद वह नीलम से एकदम विपरीत बहुत शान्त स्वभाव की थी और बहुत जरूरत पड़ने पर ही हँसा करती थी। बी.एससी. के बाद वह अर्थशास्त्र में एम.ए. करने लगी थी, लेकिन एक साल बाद ही हमारे ही इन्स्टीट्यूट में एम.स्टेट. करने आ गयी थी। आजकल शायद वह कहीं टीचर है।
मेरी तीसरी और सबसे प्रिय सहपाठिनी थी कु. कल्पना कपूर। यह भी पंजाबी थी और सबसे ज्यादा सुन्दर थी। बी.एससी. में वह बहुत शान्त रहती थी और बहुत कम बोला करती थी। मुझे याद नहीं आता अगर मैंने कभी भी बी.एससी. में उससे एक शब्द भी बोला हो। लेकिन बाद में उसने मेरे ही साथ एम.स्टेट. में प्रवेश लिया था। एम.स्टेट. के दिनों में ही हम बहुत घनिष्ट हो गये थे और घंटों बातें करते रहते थे। इस बारे में मैं विस्तार से अगले अध्याय में लिखूँगा।
एक घटना मुझे याद आती है। एक बार अंसारी साहब कक्षा में ‘Testing of Hypothesis’ पढ़ा रहे थे जिसका हिन्दी अनुवाद उन्होंने ‘परिकल्पना का परीक्षण’ किया। मैंने मजाक में कहा था- ‘सर, ‘परि’ क्यों लगा दी है? इसे हटा दीजिए।’ इस पर सारी कक्षा में जोरदार हँसी गूँज उठी थी और बेचारी कल्पना बहुत बुरी तरह शर्मा गयी थी। उसका शर्म से लाल पड़ गया चेहरा, उस समय मुझे बहुत प्यारा लगा था।
हमारी चौथी सहपाठिनी थी कु. माधवी बनर्जी। वह बंगाली थी और सुन्दर होने के बावजूद बुढ़िया सी लगती थी। वह कक्षा में और बाहर भी चुप-चुप रहती थी, लेकिन पढ़ने में काफी तेज थी और खाली समय में अंग्रेजी उपन्यास पढ़ा करती थी।
आप यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि उन दिनों मैं अंग्रेजी से बहुत चिढ़ता था। इसका कारण मेरा हिन्दी समर्थक होना तो था ही, शायद यह भी था कि मैं अंग्रेजी बोलने और तेज गति से पढ़ने में असमर्थ था। बी.एससी. के दिनों में ही मैंने अंग्रेजी समाचार पत्र कुछ-कुछ पढ़ना शुरू किया था और फिर समाचार पढ़कर अच्छी तरह समझ लेता था। लेकिन अंग्रेजी की साहित्यिक किताबों और उपन्यासों आदि से मेरी अरुचि बराबर बनी हुई थी। इस स्थिति में अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ने वाली एक लड़की हमारे लिए आश्चर्य का विषय थी। अंग्रेजी पुस्तकों के प्रति मेरी विरक्ति किस तरह समाप्त हुई और मैंने किस तरह फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना सीखा, इसका जिक्र अगले अध्याय में करूँगा।
जब हम बी.एससी. प्रथम वर्ष में थे, हमें सेंट जाॅह्न्स काॅलेज की राष्ट्रीय सेवा योजना में शामिल होना था। उन दिनों राष्ट्रीय सेवा योजना के अन्तर्गत कई प्रकार की गतिविधियाँ होती थी, जिनमें प्रमुख थी- नगर के विभिन्न भागों में कई स्थानों पर सायंकालीन निःशुल्क शिक्षा केन्द्र चलाना। मैं भी ऐसे ही एक शिक्षा केन्द्र में जो राजकीय इन्टर काॅलेज के पास जूनियर ट्रेनिंग सेन्टर में लगता था, पढ़ाने जाता था। काफी दिनों तक मैं वहाँ जाता रहा।
एक बार राष्ट्रीय सेवायोजना की तरफ से एक श्रमदान शिविर आगरा के पास के एक कस्बे खेरागढ़ (या किरावली?) में लगा था। हम सब लोग प्रातः एक रेल गाड़ी से अपनी-अपनी टिकट लेकर वहाँ पहुँचे और दोपहर तक एक गूल (सिंचाई की नाली) का निर्माण किया था। मैं प्रायः पूरे समय तक श्रमदान करने वालों के कपड़े लेकर खड़ा रहा था। फिर नाली पूर्ण हो जाने पर सबने वहाँ खड़े होकर फोटो खिंचवाया था।
उसके बाद हम सबने खाना खाया और तत्पश्चात् शहर की सामाजिक स्थिति का सर्वे करने के लिए निकल पड़े। हमारी टोली में 6-7 लोग थे। हमने पन्द्रह-बीस घरों में जाकर पूछताछ की। वह समय इमर्जेन्सी का था। बहुत से गरीब लोगों ने अपनी-अपनी नसबन्दी करा रखी थी या करवानी पड़ी थी और वे अपने नसबन्दी सर्टीफिकेट को इस प्रकार दिखा रहे थे जैसे वही उनकी अधिकतम योग्यता का प्रमाण-पत्र हो। यह सब देखकर मुझे बहुत क्षोभ होता था।
नियमानुसार हमें राष्ट्रीय सेवा योजना से अपने-अपने योगदान के लिए प्रमाण पत्र मिलने चाहिए थे। हमारे साथ के लगभग सभी लड़कों ने सर्टीफिकेट ले भी लिये थे, परन्तु मुझे कोई सर्टीफिकेट नहीं मिला। मैंने वह लेने की कोशिश भी नहीं की, क्योंकि मैं सोचता था कि सर्टीफिकेटों से सेवा को नहीं नापा जा सकता। अगर हम सेवा के बदले में प्रमाणपत्र लेना चाहेंगे, तो वह सेवा नहीं व्यापार कहा जायेगा।
बी.एससी. में हम सांख्यिकी के छात्रों ने एक एसोसियेशन बना रखी थी जिसका नाम था ‘सांख्यिकी एसोसियेशन’। प्रथम वर्ष में मैं इसकी गतिविधियों में कोई भाग नहीं लेता था, लेकिन उसके द्वारा आयोजित एक निबन्ध प्रतियोगिता जिसका विषय था ‘मृत्यु वरदान है, अभिशाप नहीं’ में मुझे तृतीय पुरस्कार मिला था। हालांकि पुरस्कार के नाम पर मात्र एक प्रमाण पत्र दिया गया था।
उसी वर्ष एसोसियेशन के वार्षिक समारोह में मैंने एक गीत सुनाया था, ‘सुनो मेरी सरकार, जमाना चमचों का’ जो बहुत पसन्द किया गया।
(जारी…)
बहुत अच्छी है आप की जीवन कथा . मुझे भी कालिज के वोह चार साल याद हो आये . यह चार साल जिंदगी के बेहतरीन साल थे . सभी प्रोफैसर याद हैं , जिन के हम ने फन्नी नाम रखे हुए थे . लड़किओं के नाम भी अजीब अजीब रखे हुए थे लेकिन यह समय था जब हम लड़किओं से बोल नहीं सकते थे . कालिज में जाने के दो रास्ते होते थे , passage for girls and passage for boys .
हा..हा…हा…. उन दिनों ऐसा ही होता था. आजकल तो लड़के-लड़की बहुत बोल्ड हो गए हैं.
बहुत ही रुचिकर लगी ये क़िस्त।
धन्यवाद, सुधीर जी.
यह क़िस्त भी पहले की तरह रुचिकर है। मैंने सन १९७६ में दिल्ली में upsc की असिस्टेंट ग्रेड परीक्षा दी थी। उसमे “जीवन एक वरदान है अभिशाप नहीं” विषय पर अंग्रेजी में निबंध लिखा था. यह जीवन की भावी घटनाओं को देखते हुए अच्छा ही था। अगली क़िस्त की प्रतीक्षा है।
आभार, मनमोहन जी.
aatm katha likhna atyant kathin kaary hai ….yah aapki tivr buddhi hone ka ka pratik hai ….padh rahaa hun ………………………
धन्यवाद, खोरेंद्र जी. आप सही कहते हैं. लिखने से पहले बहुत सोचना पड़ता है ताकि किसी के साथ अन्याय न हो जाये.