उनकी बेरुखी
उनकी बेरुखी का आलम,
कुछ इस तरह था जालिम,
आंसू हमारे देख कर भी,
वोह मुस्करा रहे थे,
पूछा जो हमने उनसे –
क्या थी खता हमारी’
वोह हंस के बोले हम तो,
यूं ही दिल बहला रहे थे,
उनका तो वहां यूं ही
बस दिल बहल गया,
इस बदनसीब पर तो मानो –
ज़हर उगल गया,
उनकी तो हुई चाँदी , यहाँ हो गई बर्बादी —
उनका तो चढ़ा चाँद यहाँ सूरज ढल गया .
होंगे वोह भी पशेमान कभी सोच सोच कर,
“यह हमने क्या किया और यह हमने क्यों किया”
शायद हमारी नज़रों में सोचे गे खुद को मुजरिम,
पर हमने तो रख कलेजा, उन्हें माफ़ कर दिया।
-जय प्रकाश भाटिया
वाह रोमांटिक कविता !