ज़िन्दगी समझ भी कहाँ आयी
ज़िंदगी समझ भी कहाँ आयी
ज़िंदगी समझ भी कहाँ आयी,
बन्दगी उनसे कहाँ हो पायी;
बुझदिली दूर कहाँ उनकी हुई,
कहाँ ज़िन्दादिली अभी आई ।
ज़िन्दा हैं जिस भी तरह द्योति बिना,
रूह को समझे कहाँ ज्ञान बिना;
रीति वे प्रीति की चखे ही कहाँ,
भीति में मर्म को छुए ही कहाँ ।
झगड़ते लड़ते माँगते वे रहे,
देने सहलाने कहाँ वे थे लगे;
दीनता गई कहाँ उर था उठा,
कहाँ दिल उनके अभी वो पैठा ।
आया व्यवहार कहाँ बोध कहाँ,
लहजा बातों का अभी आया कहाँ;
प्यार रिश्तों का अभी समझा कहाँ,
भाव श्रद्धा का अभी पनपा कहाँ ।
अहं अंकुर है अभी बिखरा कहाँ,
ब्रह्म में मिलके अभी निखरा कहाँ;
बूँद ‘मधु’ सिन्धु कहाँ हो पायी,
खाई जीवों की पटा कब पायी ।
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
अच्छी कविता !