नि:शब्द
फिर धरा लहुलुहान है,
नि:शब्द हर प्राण है
पुकारता है लहु प्रिये,
तू ही तो मेरा प्राण है !!
न चीत्कार थम रहा ,
न ममत्व ही कम रहा ,
निष्प्राण माँ की जान है,
तू ही तो मेरा प्राण है !!
कटता हर एक पल रहा ,
पर आज वो न कल रहा ,
जब दौड़ सीने से लगा ,
कहती माँ तू ही तो मेरा लाल है!!
अब तो जाग जाओ प्रिये,
ये अश्रु अब कब तक पिये,
कहीं तो सूनी मांग है,
कहीं गोद लहुलुहान है!!
न धरा बची न फल रहा ।
अब आज वो न कल रहा ।
धनुष उठा तीर साध लो ,
धरा भी आज परेशान है ।
धरा भी आज……………………….
Thank u so much sir ………man ke kuch bhavon ko bas yahan iss kavita mein utar diya hai …..
मार्मिक कविता !