कविता

नि:शब्द

peshawar
फिर धरा लहुलुहान है,
नि:शब्द हर प्राण है
पुकारता है लहु प्रिये,
तू ही तो मेरा प्राण है !!

न चीत्कार थम रहा ,
न ममत्व ही कम रहा ,
निष्प्राण माँ की जान है,
तू ही तो मेरा प्राण है !!

कटता हर एक पल रहा ,
पर आज वो न कल रहा ,
जब दौड़ सीने से लगा ,
कहती माँ तू ही तो मेरा लाल है!!

अब तो जाग जाओ प्रिये,
ये अश्रु अब कब तक पिये,
कहीं तो सूनी मांग है,
कहीं गोद लहुलुहान है!!

न धरा बची न फल रहा ।
अब आज वो न कल रहा ।
धनुष उठा तीर साध लो ,
धरा भी आज परेशान है ।
धरा भी आज……………………….

2 thoughts on “नि:शब्द

  • अंशु प्रधान

    Thank u so much sir ………man ke kuch bhavon ko bas yahan iss kavita mein utar diya hai …..

  • विजय कुमार सिंघल

    मार्मिक कविता !

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