कब्र में जाग रही हैं डेढ़ सौ औरतें
इस बर्फ-सी जमी रात में
कब्र में जाग रही हैं डेढ़ सौ औरतें
दरअसल उन्हें आता ही नहीं था सोना
जिस दिन आने लगती थी नींद
बालों से पकड़ कर खींच लिया जाता था उन्हें
और फिर भौथरे चाकू से
हलाल किया जाता था रात भर
सोने और जागने के बीच
कराहने की आवाज़
उनके ज़िंदा होने का सबूत थी
जिस दिन वे देखना चाहती थीं चाँद
घुमड़ आते थे काले बादल
कड़कती थीं बिजलियाँ
और उन्हें छिपा दिया जाता था
गदहों के अस्तबल में
उनके मुल्क में बस यही तरीका था
औरत को बचाने का
हालाँकि उनकी जान
किसी गदहे से कीमती नहीं थी
उनके खून से
दलदल हो गई है कब्र की मिट्टी
उनके पेट में अब भी जल रही है
भूख की भट्ठी
आप तो जानते ही हैं,
इंसान मरता है,
मुफलिस की भूख नहीं
वे जानती हैं कोई नहीं आएगा
यहाँ फातिहा पढ़ने
फिर से गिना जाएगा
जवान हो रहा मादा गोश्त
और बंदूक की नोक पर
नीलाम कर दिया जाएगा
फलूजा के इसी चौक में
सारे मौलवी चुपचाप खड़े रहेंगे
कमर के पीछे हाथ बाँधे
आखिर उनके घरों में भी तो
जवान बेटियाँ हैं
खुदा तुम नहीं छीन सकते मर्द की वहशत
कोई बात नहीं
खुदा तुम रोक नहीं सकते मुल्कों के बीच जंग
कोई बात नहीं
खुदा तुम्हारे वश में नहीं हैं
आँधी तूफान और भूचालों का आना
कोई बात नहीं
बस इतना कर दीजिए
औरत के जिस्म पर उग़ा दीजिए काँटे
कि जंगल में नागफनी की तरह
वे बेफिक्र रहें हर मौसम में
जानवर भी सूँघ कर छोड़ जाएं उन्हें
इस बर्फ-सी जमी रात में
कब्र में, सजदे में हैं डेढ़ सौ औरतें
दरअसल उन्हें फिक्र है उन औरतों की जो अभी बची हैं
नाखुदा के फज़ल से!
——राजेश्वर वशिष्ठ
बहुत करारी कविता।