जानिए संत किसे कहते हैं
मित्रो, आपने ‘ संत’ शब्द का संबोधन सुना ही होगा और कई बार प्रयोग भी किया होगा । अधिकतर किसी ‘ धार्मिक’ या ‘ सामजिक’ विचार वाले को ‘संत’ की उपाधि दे दी जाती है जैसे संत कबीर दास, संत रैदास, संत दादू आदि।
पर तुलसी दास जी के अनुसार जो लोग तथाकथित नीच समझी जाने वाली जातियों से हैं जैसे तेली, कुम्हार, चाण्डाल, चर्मकार, भील , कोल, कलवार, कीरत अदि अधम जातियों में जन्मे लोग ही संत कहलाते हैं ।
तुलसी दास जी के अनुसार इन तथाकथित नीची जातियों में जन्मे लोग पुराणों, वेदों आदि ब्रह्मणिक ग्रंथो की प्रमाणिकता में विश्वास नहीं रखते, इन्हें संत कहा जाता है –
मिथ्यारन्भ दंभ रत जोई।
ता कंहू संत कहई सब कोई।।
देखा जाये तो तुलसी दास जी का कथन सही भी लगता है क्योंकि आज या उस समय जी लोगो को संत कहा जाता था अधिकतर वे तथाकथित अधम जाति के ही थे और ब्रह्मणिक ग्रंथो को मानने से इंकार करते थे।
कबीर दास जुलाहा जाति के थे जो जिसके पिता या दादा हाल ही में योगी जाति या सिद्ध जाति से जुलाहे बने थे । रैदास जी भी चर्मकार जाति से थे । संत सेन नाई जाति से थे । संत दादू धुनिया जाति के थे । कश्मीर की विख्यात महिला संत लल्ला देढ्वा मेहतर जाति की थीं।
संत शब्द का उपयोग आज बेशक कई ऊँची जातियों के लोगो के लिए किया जाता हो, पर आरंभ मे ये नीची जातियों के लिए ही प्रयोग किया जाता था , पर आज कुछ जातियां जो ऊँची कहलाती हैं, वे आरम्भ में नीची ही समझी जाती थी ।
मैंने संत शब्द पर विचार किया। मुझे लगता है शांत स्वभाव के व्यक्ति को ही संत कहा जाने लगा होगा। सन्त शब्द शान्त शब्द का अपभ्रंस प्रतीत होता है। मैं यह भी कहना चाहूंगा कि छिद्रान्वेषण एक बहुत बड़ा अवगुण है और बुरी प्रतीत होने वाली बातों में से भलाई खोजना व निकलना साधुवों कास्वभाव है।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने कहीं लिखा है की धर्मात्मा सभी मनुष्य हो सकते हैं परन्तु विद्वान सभी नहीं हो सकते। इसलिए सभी को धर्मात्मा बनना चाहिए। मुझे यह भी लगता है कि हमारे प्राचीन साहित्य में संत शब्द का बहुत कम प्रयोग हुआ है। विद्वान बनने के लिए बहुत अधिक अध्ययन करना होता है परन्तु धर्मात्मा के लिए इसकी अधिक आवश्यकता नहीं है। मुझे लगता है कि धर्मात्मा को ही संत कहा जाता है। धर्मात्मा या संत बनने के लिए हमें ऋषि – मुजियों – विद्वानो – आदर्श सन्यासियों तथा धर्मात्माओं का अनुसरण वा अनुकरण करना होता है और आदर्श चरित्र रखते हुए सब कल्याण व परोपकार की भावना रखनी होते है। ऐसा ही हम संतो वा महापुरुषों के जीवन में पाते हैं।
केशव जी, आपने हमेशा की तरह फिर गलत सन्दर्भ देकर बहुत गलत निष्कर्ष निकाला है. जिस चौपाई का सन्दर्भ आपने दिया है, वह चौपाई तुलसी दास जी ने कलयुग के लक्षणों को बताने के लिए लिखी है. उसके आगे पीछे भी ऐसी बहुत सी चौपाईयां हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि तुलसीदास जी इससे सहमत थे.
इस चौपाई का अर्थ यह है कि “कलयुग में झूठा जीवन जीने वाले अर्थात पाखंडियों और दंभ करने वालों को ही संत कहा जाता है.” किसी जाति का तो इसमें कोई संकेत भी नहीं है. इसलिए आपके सारे निष्कर्ष गलत हैं.
आपको ऐसी बौद्धिक बेईमानी नहीं करनी चाहिए.