मनु का प्रशंसनीय विधान
हमारे अनेक क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के बन्धु प्रायः कहा करते हैं कि महाराज मनु ने ब्राह्मणेतर वर्णों के साथ अन्याय किया है। उनका यह आरोप समाज में प्रचलित जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था के कारण होता है। आरोपकर्ता बन्धुओं के इस आरोप के पीछे की पीड़ा तो समझ में आती है परन्तु जैसे किसी आरोप में पुलिस कई बार असली आरोपी के स्थान पर अन्य निर्दोष व्यक्तियों को पकड़ लेती है, ऐसा ही हमारे आरोपकर्ता बन्धुओं का महाराज मनु पर आरोप है। मनु कौन थे? इसके उत्तर में हम यह बताना चाहते हैं कि सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में ब्रह्माजी व अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा आदि ऋषि उत्पन्न हुए थे। ब्रह्माजी की पहली पीढ़ी में स्वायम्भुव मनु उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने समय में राज्य व्यवस्था को सर्वप्रथम प्रचलित किया और इसके लिए वैदिक मान्यताओं को केन्द्र में रखते हुए “देश के संविधान मनुस्मृति” की रचना व प्रणयन किया। ब्रह्माजी की उत्पत्ति आज से 1,96,08,53,114 वर्ष पूर्व हुई थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इतने वर्ष पूर्व प्रणीत मनुस्मृति का मूल स्वरूप क्या सुरक्षित रहा है?
मनुस्मृति में प्रक्षेपकों ने नाना प्रकार के विकार, परिवर्तन व संशोधन आदि समय-समय पर किये हैं जिस कारण आज प्राप्त होने मनुस्मृति वह प्राचीन मनुस्मृति नहीं है जो कि महाराज मनु ने सृष्टि के आरम्भ में रची थी। हम समान्य साहित्य के सन्दर्भ में यह जानते हैं कि कई बार संशोधन अच्छा व उपयोगी होता है और कई बार गलत भी। मनुस्मृति के बारे में महर्षि दयानन्द और अनेक वैदिक विद्वानों का यह सुनिश्चित मत है कि प्रक्षेपकों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए इसमें वेदों व महाराज मनु की मूल भावना के विपरीत परिवर्तन व प्रक्षेप किये हैं। यह अच्छी बात रही कि प्रक्षेपकों ने प्रक्षेप करते समय अपने पाठ तो इसमें जोड़े और बढ़ाये परन्तु मूल पाठों को इसमें से हटाया नहीं। इस कारण आज जो मनु-स्मृति प्राप्त होती है, उसमें महाराज मनु के मूल श्लोक भी सुरक्षित व विद्यमान हैं। ऐसे ही मनु के एक श्लोक को प्रस्तुत कर हम यह दिखाना चाहते हैं कि मनु ने ब्राह्मणेतर अन्य तीन वर्णों क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को भी ब्राह्मण वर्ण का बनने का अवसर सुलभ कराया था और वैदिक काल में अनेक लोग अन्य-अन्य वर्णों से ब्राह्मण भी बने थे। इस सन्दर्भ में हम अपने समय के एक सिद्ध योगी, धर्मात्मा, ईश्वर का साक्षात्कार किए हुए तथा वेदों एवं वैदिक साहित्य के शीर्षस्थ विद्वान महर्षि दयानन्द (1825-1883) के वचनों को प्रस्तुत करते हैं।
महर्षि दयानन्द ने अपनी कालजयी कृति सत्यार्थ प्रकाश के चैथे समुल्लास में स्वयं प्रश्न उपस्थित किया है कि क्या जिसके माता-पिता ब्राह्मण हों, वह ब्राह्मणी-ब्राह्मण होता है? और क्या जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हों उनका सन्तान कभी ब्राह्मण हो सकता है? महर्षि दयानन्द का कहना व मानना है कि ब्राह्मण माता-पिता की सन्तान वेदों व वैदिक साहित्य में ब्राह्मण वर्ण के लिए प्रतिपादित गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल दीक्षित व योग्य होने पर ब्राह्मण-ब्राह्मणी हो सकते हैं और यदि उनके गुण-कर्म व स्वभाव ब्राह्मण वर्ण के अनुकूल नहीं हैं तो नहीं भी हो सकते। अन्य वर्णस्थ माता-पिता की सन्तानों के ब्राह्मण होने न होने के प्रश्न पर वह लिखते हैं – ‘हां बहुत से (अन्यवर्णस्थ ब्राह्मण) हो गये, होते हैं, और होंगे भी। जैसे छान्दोग्य उपनिषद् में जाबाल़ ऋषि अज्ञातकुल (संदर्भ–प्रमाणः– सा (जाबाला) हैनमु वाच नाहमेतद् वेद तत यद्गोत्रस्त्वमसि बह्वहं चरन्ती परिचारिणी यौवने त्वामलभे। …… त होवाच (आचार्यः) नैतदब्राह्मणो विवक्तुमर्हति। छान्दोग्योपनिषद 4/4/2-5), महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रियवर्ण (प्रमाण व सन्दर्भः–कथं प्राप्तं महाराज क्षत्रियेण महात्मना। विश्वामित्रेण धर्मात्मन् ब्राह्मणत्वं नरर्षभ।। महा. अनु. 3/1,2) और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल से (संदर्भ–प्रमाणः–स्थाने मतंगो ब्राह्मण्यमालभद् भरतर्षभ। चण्डालयोनौ जातो हि कथं ब्राह्मण्यमवाप्तवान्।। महाभारत अनु. 3/19) ब्राह्मण हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या स्वभाववाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है। और वैसा ही आगे भी होगा।
इसके बाद महर्षि दयानन्द ने प्रश्न किया है कि भला जो रज-वीर्य से शरीर हुआ है, वह बदल कर दूसरे वर्ण के योग्य कैसे हो सकता है? इसका वह स्वयं उत्तर देते हैं कि ‘रज–वीर्य के योग से ब्राह्मण शरीर नहीं होता।’ इसके बाद वह महाराज मनु की मनुस्मृति से क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र को ब्राह्मण बनाने की योग्यता का उल्लेख करते हुए मनुस्मृति के श्लोक संख्या 2/28 को प्रस्तुत कर उसका हिन्दी अनुवाद करते हैं जो पाठकों के लिए उद्धृत करते हैं। श्लोक है – “स्वाध्यायेन जनैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।।“ इस श्लोक का अर्थ है – (स्वाध्यायेन) पढ़ने–पढ़ाने (जपैः) विचार करने–कराने, (होमैः) नानाविध होम के अनुष्ठान, (त्रैविद्येन) सम्पूर्ण वेदों को शब्द–अर्थ–सम्बन्ध–स्वरोच्चारण सहित पढ़ने–पढाने, (इज्यया) पौर्णमासी इष्टि आदि के करने, पूर्वोक्त विधिपूर्वक (सुतैः) धर्म से सन्तानोत्पत्ति, (महायज्ञैश्च) ब्रह्म–यज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथियज्ञ, (यज्ञैश्च) अग्निष्टोमादि यज्ञ, विद्वानों का संग–सत्कार, सत्यभाषण, परोपकारादि सत्कर्म, और सम्पूर्ण शिल्पविद्यादि पढ़के दुष्टाचार छोड़ श्रेष्ठाचार में वत्र्तने से (इयम्) यह (तनुः) मानव शरीर (ब्राह्मी) ब्राह्मण का (क्रियते) किया जाता है।
जो मनुष्य रज-वीर्य से उत्पन्न सन्तान को उसी वर्ण का अर्थात् ब्राह्मण-ब्राह्मणी के पुत्र व पुत्री को ब्राह्मण व ब्राह्मणी मानते हैं, उनसे पूछते हैं कि क्या इस श्लोक को तुम नहीं मानते? उत्तर- मानते हैं।, फिर क्यों रज-वीर्य के योग से वर्णव्यवस्था मानते हो? मैं अकेला नहीं मानता, किन्तु बहुत से लोग परम्परा से ऐसा ही मानते हैं। महर्षि फिर स्वयं से प्रश्न करते हैं कि क्या तुम परम्परा का भी खण्डन करोगे? इसका उत्तर देते हुए वह लिखते हैं कि नहीं, परन्तु तुम्हारी उलटी समझ को नहीं मान के खण्डन भी करते हैं। प्रश्न- हमारी उलटी और तुम्हारी सूधी समझ है, इसमें क्या प्रमाण है? उत्तर- यही प्रमाण है कि जो तुम पांच-सात पीढि़यों के वर्तमान को सनातन व्यवहार मानते हो, और हम वेद तथा सृष्टि के आरम्भ से आज-पर्यन्त की परम्परा (को परम्परा) मानते हैं। देखो, जिसका पिता श्रेष्ठ उसका पुत्र दुष्ट, और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट, तथा कहीं दोनों श्रेष्ठ वा दुष्ट देखने में आते हैं। इसलिए तुम लोग भ्रम में पड़े हो। इसके आगे वह लिखते हैं कि देखो, मनु महाराज (मनुस्मृति 4/178) ने क्या कहा है- ”येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः। तेन या यात् सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते।।“ अर्थात् जिस मार्ग से इसके पिता-पितामह चले हों, उसी मार्ग में सन्तान भी चलें। परन्तु “सताम्” = जो सत्पुरूष पिता–पितामह हों उन्हीं के मार्ग में चलें और जो पिता–पितामह दुष्ट हों, तो उनके मार्ग में कभी न चलें। क्योंकि उत्तम धर्मात्मा पुरूषों के मार्ग में चलने से दुःख कभी नहीं होता।
महर्षि दयानन्द महाभारत काल के बाद भारत ही नहीं वरन् विश्व के वेद, वैदिक साहित्य एवं संस्कृत के महान विद्वान हुए हैं। उनके द्वारा मनुस्मृति के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि वर्ण गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर होते हैं, जन्म के आधार पर नहीं। विद्याध्ययन एवं चारित्रिक गुणों में वृद्धि कर वर्ण में उन्नति की जा सकती है और अपनी इच्छा के अनुसार वर्णों के गुण-कर्म व स्वभाव को धारण कर वर्ण परिवर्तन अर्थात् मनोवांछित वर्ण को ग्रहण व धारण किया जा सकता है। इन विधानों के प्रकाश में मनु जी को समाज व मनुष्यों में असमानता, ऊंच-नीच, विषमता या छुआ-छूत फैलाने का दोषी नहीं माना जा सकता। इसका दोष मनुस्मृति में प्रक्षेप करने वाले अज्ञात विद्वानों का है जिन्होंने अपने वर्ग के स्वार्थ के लिए मनृस्मृति में प्रक्षेपों को किया। उनका यह कार्य एक निन्दनीय कर्म है। महर्षि दयानन्द को इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने मनु पर लगने वाले मिथ्या आरोपों से उन्हें मुक्त किया।
यहां यह भी उल्लेख करना है कि आर्य समाज द्वारा देश भर में लगभग 500 गुरूकुलों में वेद और वेद-व्याकरण की शिक्षा बिना जाति व वर्ण का अन्तर किये समान रूप से दी जाती है। जो व्यक्ति स्वयं या अपनी सन्तानों को ब्राह्मण बनाना चाहते हैं, वह वहां प्रवेश लेकर इसका लाभ उठा सकते हैं। आर्य समाज ने विगत 130 वर्षों में सहस्रों अब्राह्मणों को गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण ही नहीं अपितु वेद-भाष्यकार तक बनाया है। उन जितनी व जैसी योग्यता देश के वर्तमान शीर्षस्थ विद्वान संस्कृतज्ञ ब्राह्मणों में भी नहीं है। मनुस्मृति में सेे मिलावट दूर करने के उद्देश्य से प्रक्षेप निकाल कर “विशुद्ध मनुस्मृति” प्रकाशित करने का महनीय कार्य भी महर्षि दयानन्द के अनुयायियों द्वारा किया गया है जिसके लिए दिल्ली स्थित आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, नयाबांस, खारी बावली, दिल्ली-6, स्थापक व प्रकाशक महात्मा दीपचन्द आर्य, लेखक, अनुवादक व सम्पादक पं. राजवीर शास्त्री एवं प्रो. सुरेन्द्र कुमार तथा वर्तमान प्रकाशक श्री धर्मपाल आर्य विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं। हमारा निवेदन है कि यदि किसी को मनु महाराज से कोई शिकायत है तो उसे सार्वजनिक करने से पहले वह इस ग्रन्थ का गम्भीरता से अध्ययन अवश्य करे अन्यथा उसकी आलोचना निराधार व प्रमाण विरूद्ध होने से असत्य व अज्ञानी व्यक्ति की खीज के समान होगी।
वर्तमान समय परिवर्तनकारी युग है जिसमें सभी धार्मिक व सामाजिक कुप्रथाओं व अन्धविश्वास आदि को समाप्त व नष्ट होना ही होगा। अब समय आ गया है कि विज्ञान की भांति सभी धार्मिक व सामाजिक विषयों में एक मत हुआ जाये जिससे सामाजिक, धार्मिक कटुता व विषमता समाप्त होकर समाज, देश व विश्व में चिरस्थाई सुख-शान्ति स्थापित हो। हम ईश्वर से भी प्रार्थना करते हैं कि वह सामाजिक व धार्मिक भेदभाव समाप्त करने व सत्य व ज्ञान-विज्ञान पर आधारित एक सत्य मत की स्थापना में समाज के शीर्ष लोगों को प्रेरित करे।
-मनमोहन कुमार आर्य
अच्छा लेख. आपने बहुत महत्वपूर्ण बातें कही हैं. पर बहुत से धूर्त लोग हैं जो मनु स्मृति में बाद में धूर्तों द्वारा मिलाये गए श्लोकों के बहाने पूरे हिन्दू समाज पर आक्रमण करते हैं और समाज में वैमनस्य फैलाते हैं. ऐसे लोगों को इस लेख से सीख लेनी चाहिए.
आपकी उत्साह्वरदक पंक्तियों के लिए हार्दिक धन्यवाद।