कविता

व्यथा

चित्कार रहा आज मेरा मन
भीगा है आँसूओं से दामन
क्या की थी मैंने ऐसी खता
जो तार-तार किया तुमने मेरा दामन
गर लड़की होना कसूर था मेरा
तो क्यूं लड़की के रूप में न दिखी
तुम्हें तुम्हारी माँ और बहन

लूटकर अस्मिता मेरी क्या तुमने पाया है
महज चंद मिनटों के जोश में तुमने
एक मासूम का जीवन गंवाया है
अब कैसे सामान्य जीवन जी पाऊंगी मैं
तुम्हारे इस कृत्य के बाद
अब कैसे घरवालों से नजरें मिला पाऊंगी
मैं तुम्हारा यह घिनौना रूप देखने के बाद

कौन अपनाएगा अब मुझे
कौन थामेगा अब मेरा हाथ
सच कहना !
क्या तुम ही चलना पसंद करोगे
जीवन भर ऐसी लड़की के साथ !
गर नहीं !
तो किसने दिया था तुम्हें यह अधिकार
जीवन उजाड़ देना किसी मासूम का
क्या यही थे तुम्हारे संस्कार !

कभी सोचा तुमने क्या होगा मेरा हाल
किस कदर हुआ होगा मेरा मन तार-तार
किस कदर महसूस किया था मैंने
खुद को बेबस और लाचार
ज़रा दिल पर हाथ रखकर बताना तुम
क्या कभी सह पाओगे तुम अपनी
बहन या बेटी पर होते यह अत्याचार !

गर नहीं
तो क्यूं किसी की बेटी पर
यह जुल्म ढाया है
क्यूं शर्मिंदा कर के उसको
अपनी मर्दानगी का सबूत दिखाया है
क्या औरत को दबाना , कुचलना
यह मर्दानगी है !

गर नहीं
तो क्यूं मैं महसूस करूं खुद को शर्मसार
क्या गलती की थी मैंने !
असल मैं तो तुम हो गुनहगार
शर्मसार तो तुम हो जिसने
मुझे इक खिलौना समझ रौंदा है
शर्मसार हो वह दहलीज
जहां तुमने ऐसे संस्कार पाये हैं
शर्मसार तो होती होगी वह कोख
जिसको तुमने आज छला है ।

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - [email protected]

2 thoughts on “व्यथा

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता।

    • प्रिया वच्छानी

      tnkx Vijay Bhai ji

Comments are closed.