सामाजिक

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी – चर्चा-२

श्रीकृष्ण को अच्छी तरह समझे बिना गीता तक नहीं पहुंचा जा सकता।

शरीर और आत्मा जैसी दो चीजें नहीं हैं। आत्मा का जो छोर दिखाई देता है, वह शरीर है और शरीर का जो छोर दिखाई नहीं पड़ता, वह आत्मा है। परमात्मा और संसार जैसी दो चीजें नहीं हैं। परमात्मा और प्रकृति जैसा द्वन्द्व नहीं है कहीं। परमात्मा का जो हिस्सा दृश्य हो गया है, वह प्रकृति है और जो अब भी अदृश्य है, वह परमात्मा है। कहीं भी ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां प्रकृति समाप्त होती है और परमात्मा शुरु होता है। बस, प्रकृति ही लीन होते-होते परमात्मा बन जाती है और परमात्मा ही प्रकट होते-होते प्रकृति बन जाता है। अद्वैत का यही अर्थ है। इस अद्वैत की धारणा हमें स्पष्ट हो जाय, तो कृष्ण को समझा जा सकता है।

कृष्ण हैं एक बहती धारा, एक नदी, जो बरसात में सारे तटों को तोड़ देती है और गर्मी में सिमट जाती है। उसे तटों को डुबो लेने से न अहंकार होता है और सिमट जाने से न कोई क्षोभ। बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट, मुहम्मद – सभी विशाल झील हैं। सबकी सीमाएं हैं, नियम हैं, मर्यादाएं हैं। कृष्ण असीम हैं। उन्हें किसी नियम में नहीं बांधा जा सकता, उनके लिए कोई मर्यादा निर्धारित नहीं की जा सकती। परमात्मा को भी बांधा जा सकता है क्या? कृष्ण सारे बंधनों को तोड़ते हैं। माया का बंधन, मोह का बंधन, अहंकार का बंधन, आसक्ति का बंधन, वचन का बंधन – कोई भी बंधन उन्हें स्वीकार नहीं। सारे बंधन अज्ञान और अहंकार जनित हैं। कृष्ण अकेले ही ऐसे पूर्ण व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊँचाइयों पर होकर भी  गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं। साधारणतः सन्त का लक्षण ही गंभीर, उदास और रोता हुआ होना है। जिन्दगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले नाचते हुए व्यक्ति हैं – हँसते हुए, गाते हुए, बाँसुरी बजाते हुए। समस्त धर्मों ने जीवन के दो हिस्से कर रखे हैं – एक वह जो स्वीकार योग्य है और दूसरा वह जो इंकार योग्य है। अकेले कृष्ण ही समग्र जीवन को पूरा स्वीकार करते हैं। जीवन की समग्रता में स्वीकृति उनके व्यक्तित्व और जीवन में फलित हुई है। इसलिए इस देश ने बाकी अवतारों को अंशावतार कहा है और कृष्ण को कहा है – पूर्ण अवतार। जिसने कृष्ण को समझ लिया, वह मुक्त हो गया। निरहंकार, निर्लिप्त, अकर्ता और साक्षी भाव की अनुभूति के बिना क्या कोई कृष्ण को समझ सकता है?

श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था कि ऐसा समय न कभी था और न कभी होगा, जब तुम नहीं थे और मैं नहीं था। यह बात कृष्ण ने सिर्फ अर्जुन से नहीं कही थी। हर सजीव, हर स्त्री-पुरुष से कही थी और वह भी सदा के लिए। तत्त्व रूप से, विचार रूप से, आज भी प्रत्येक चराचर में वे विद्यमान हैं और उनके साथ विद्यमान है उनकी अमृत वाणी – गीता। महर्षि व्यास ने आज से पांच हजार वर्ष पूर्व ही गीता को मानव मात्र का धर्मशास्त्र घोषित किया थ। महाभारत के भीष्म पर्व में वे कहते हैं –

गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।

                  या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृताः ॥

गीता भली प्रकार मनन करके हृदय में धारण करने योग्य है, जो पद्मनाभ भगवान के श्रीमुख निःसृत वाणी है, फिर अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता?

गीता सार्वभौम है। धर्म के नाम पर प्रचलित विश्व के समस्त धर्मग्रंथओं में गीता का स्थान अद्वितीय है। यह स्वयं में धर्मशास्त्र ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मग्रंथो में निहित सत्य का मानदण्ड भी है। गीता वह कसौटी है, जिसमें  प्रत्येक धर्मग्रंथ में छिपा सत्य प्रकट हो जाता है, परस्पर विरोधी कथनों का समाधान निकल आता है। प्रत्येक धर्मग्रंथ में, संसार में जीने-खाने की कला और कर्मकाण्डों का बाहुल्य है। जीवन को आकर्षक बनाने के लिए उन्हें करने के या न करने के रोचक भयानक वर्णनों से धर्मग्रंथ भरे पड़े हैं। कर्मकाण्डों की इस परंपरा को जनता धर्म समझने लगी है। जीवन-निर्वाह की कला के लिए निर्मित पूजा पद्धतियों मे देश-काल और परिस्थिति के अनुसार विभिन्नता स्वाभाविक है। धर्म के नाम पर पूरे विश्व में कलह का यही एकमात्र कारण है। गीता इन क्षणिक व्यवस्थाओं से उपर उठकर आत्मिक पूर्णता में प्रतिष्ठित करने का क्रियात्मक अनुशीलन है। इसका एक भी श्लोक किसी कर्मकाण्ड या पूजा-पद्धति के विषय में नहीं है। तथाकथित धर्मग्रंथों की भांति यह किसी को जन्नत या जहन्नुम के द्वन्द्व में फंसाकर नहीं छोड़ता, बल्कि उस अमरत्व की उपलब्धि कराता है, जिसके पीछे जन्म-मृत्यु का बंधन रह ही नहीं जाता।

गीता में श्रीकृष्ण के संदेश के मर्म में जाकर आत्मसात करके तदनुसार आचरण करते हुए मनुष्य आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा पर जा सकता है। लेकिन भगवान ने सामान्य जनों की जीवन-दृष्टि और व्यक्तित्व के विकास पर भी समाधान के साथ विस्तार से चर्चा की है। व्यक्तित्व के विकास में बुद्धि का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। जैसी श्रद्धा रहेगी, बुद्धि भी वैसी ही होगी। गीता कहती है –

      श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छृद्धः स एव सः

अर्थात यह पुरुष श्रद्धामय है। जैसी उसकी श्रद्धा होती है, वैसा वह बन जाता है।

तत्परता एवं एकीकृत इन्द्रियों से ही उद्देश्य के प्रति समर्पण एवं समर्पण से श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा के गर्भ से बुद्धि तीक्ष्ण होती है और उत्तरोत्तर ज्ञान की वृद्धि होती है। भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों प्रकार के विकास के लिए यही सूत्र काम आता है। एक विकसित व्यक्तित्व के २६ लक्षण गीता में बताए गए हैं। अभय, सत्त्व संशुद्धि (अन्तःकरण की निर्मलता), ज्ञान की प्राप्ति, भौतिक संपदा को दान करने की प्रवृत्ति, इन्द्रिय-संयम, स्वार्थरहित कर्म,, स्वाध्याय, श्रमसाध्य तप, सह्जता, सहअस्तित्व, सत्य, अक्रोध, त्याग शान्ति, दूसरों की निन्दा नहीं करना, प्राणियों के प्रति दया, निश्छल मन, तेज, क्षमाशीलता, लोभ नहीं करना, मधुरता, गलती करने पर संकोच, धैर्य, पवित्रता, द्वेष नहीं करना, निरहंकारिता, निष्ठा। ये समस्त गुण किसी एक धर्म से नहीं बंधे हैं। एक पूर्ण व्यक्ति के लिए उसके व्यक्तित्व में इन गुणों का होना आवश्यक माना गया है।

छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों से प्रश्न है कि इनमें से कौन से गुण मानवता विरोधी और सांप्रदायिक हैं जिसके आधार पर वे गीता का विरोध कर रहे हैं।

क्रमशः

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.