शंकराचार्य तथा अन्य गुरू
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्मं, तस्मे श्री गुरवे नमः ।।
हिन्दू समाज के आदि शंकराचार्य के लिखे इस श्लोक का प्रयोग हमारे देश के आधुनिक गुरू-जन अपना प्रवचन शुरु करने से पहले करते हैं ताकि श्रोताओं को कोई गलतफहमी ना रहै, वह इसी श्लोक को सुन कर आंखें बन्द करें, और क्षमता की परवाह किये बिना सामने बैठे गुरु को साक्षात ब्रह्मा, विष्णु या महेश की तरह सर्वज्ञ, सर्व शक्तिमान और सर्व-व्यापक ईश्वर मान लें।
हिन्दू धर्माचार्यों की विमुखता
हिन्दूओं का दुर्भाग्य था हमारे धर्माचार्यों ने अपने आप को देश के राजनैतिक वातावरण से अलग थलग रख कर, अपने अध्यात्मिक उत्थान तथा मोक्ष की प्राप्ति में लगे रहै और कुछ ने अपने आर्थिक उत्थान की राह पकड ली। अगर हिन्दू धर्माचार्यों में राजनैतिक जागृति होती तो बटवारे के पश्चात उन्हें भारत को ऐक हिन्दू राष्ट्र घोषित करवाने के लिये प्रयत्न करते रहना चाहिये था ताकि हिन्दू धर्म का सभी दिशाओं में बिखराव ना होता। घायल तथा बटवारे के कारण विक्षिप्त हिन्दू समाज धर्म निर्पेक्षता की ओर पलायन ना करता और हम मानसिक दिशा हीनता से बच जाते। आज हमारे सामने अल्प संख्यक तुष्टिकरण, धर्मान्तरण और कम्यूनिजम नक्सलवाद जैसी समस्यायें पैदा ना होतीं। इस दुनियां में कम से कम भारत ऐक हिन्दू देश के नाम का परचम लहराता। लेकिन देश की विरासत को सम्भालने के बजाये धर्माचार्यों ने पूर्वज ऋषियों की सनतान कहलाने के बजाय गांधी को अपना ‘नया राष्ट्रपिता’ मान लिया। धर्महीन नेहरू ने जब भारत के ‘स्वर्ण युग’ को ‘गोबर युग’ की उपाधि दी तो किसी धर्मगुरू ने आपत्ति नहीं जताई। सभी नेहरू परिवार की राजनैतिक अगुवाई के आगे नतमस्तक रहे और कई तो आज भी हैं। यहां तक कि जब सोनियां ने कहा “भारत हिन्दू देश नहीं है ”, राहुल ने कहा “भारत को सब से बडा खतरा भगवा आतन्कवाद से है”, और मनमोहन सिहं ने यह कह कर कि “देश के साधनों पर प्रथम हक अल्प-संख्यकों का है” उन के तुष्टिकरण के लिये सरकारी खज़ाने खोल दिये तो भी हमारे शंकराचार्य मौन साघे रहै। तुष्टिकरण के खर्चे का ‘जजिया टैक्स ’ अब सभी हिन्दू चुका रहै हैं।
चलो अब थोडे से गर्व की बात है इस निर्वाचन में कुछ धर्म गुरूओं ने राजनैतिक साहस बटोरा और अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने की दिशा में खुल कर अपनी अपनी सोचानुसार राजनैतिक दलों का समर्थन भी किया। इस दिशा में पहल स्वामी राम देव ने करी। उन्हों ने योग को जनजन तक फैला कर योग का डंका दुनियां भर में बजवाया है लेकिन इनाम में उन्हे राजधानी दिल्ली के अन्दर ही जिल्लत के साथ त्रास्दी उठानी पडी। अधिकांश धर्माचार्यों ने राजनीति से मूहँ फैरना ही उचित समझा। अब स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती ने विधान सभा चुनावों से पहले वर्षों पुरानी सांई बाबा की पूजा पर प्रश्न चिन्ह लगाये हैं और उन के समर्थन में नागा साधु साईं भक्तों को सबक सिखाने के लिये तत्पर हो गये हैं। इस से हिन्दू समाज का विघटन होगा और ऐक नया हिन्दू विरोधी ‘साईं वोट बैंक’ खडा हो जाये गा। इस से पहले स्वामी स्वरूपानन्द ने ‘हर हर मोदी’ के नारे पर भी आपत्ति दर्ज करा कर अपनी राजनैतिक सोच जाहिर कर दी थी।
धर्माचार्यों का निजी राजनैतिक झुकाव जिधर भी हो लेकिन देश की धर्महीन राजनीति में उन का का प्रत्यक्ष योगदान सराहनीय है और आशा है अल्पसंख्यकों की तरह अब हिन्दू भी अपनी आस्थाओं के आधार पर अपने ही देश में राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हों गे तथा अपने समाज की समस्याओं का निवारण राजनेताओं से अधिकार स्वरूप मांगे गे। धर्माचार्य भी हिन्दू समाज के प्रति उत्तरदाई हों गे।
हिन्दू धर्म का विग्रह
सिकन्दर के आक्रमण से पहले भारत में जैन और बौद्ध धर्म के विहार और मठ आदि बन चुके थे। समय के साथ साथ समाज में कई कुरीतियां, अन्ध विशवास और आकर्मणतायें भी फैल गयी थीं। देश छोटे छोटे राज्यों में बट गया था। उस समय तक्षशिला के ऐक साधारण आचार्य चाण्क्य ने राजनैतिक ऐकता फिर से देश में जगा का सत्ता परिवर्तन किया था जिस के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त मौर्य ने शक्तिशाली भारत का पुनर्त्थान किया। लेकिन सम्राट अशोक का शासन समाप्त होते ही शक्तिशाली भारत फिर से कमजोर हो गया। बहुत से राज वँशों ने बुद्ध अथवा जैन मत को अपनाया तथा कई राजा संन्यास ले कर भिक्षुक बन स्वेछा से मठों में रहने लगे थे।
कई नागरिक भी घर-बार, व्यवसाय, तथा कर्म त्याग भिक्षु बन के मठों में रहने लगे थे। मूर्ति पूजा भी खूब होने लगी थी। कई मठ और मन्दिर आर्थिक दृष्टि से समपन्न होने लगे। कोई अपने आप को बौध, जैन, शैव या वैष्णव कहता था तो कोई अपनी पहचान ‘ताँत्रिक’ घोषित करता था। धीरे धीरे कोरे आदर्शवाद, अध्यात्मवाद, और रूढिवादिता में पड कर हिन्दू कर्म की वास्तविकता से दूर होते चले गये और राजनैतिक ऐकता की अनदेखी भी करने लगे थे। क्षत्रीय युवाओं ने शस्त्र त्याग कर भिक्षापात्र हाथों में पकड लिये और पुजारी-वर्ग ने ऋषियों के स्थान पर अपना अधिकार जमा लिया था।
हिन्दूओं का स्वर्ण युग
आज बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि हमारे देश की सामाजिक और राजनैतिक कुरीतियों को दूर करने के लिये और हिन्दू समाज को फिर से ऐक करने के लिये केरल में जन्में आदि शंकराचार्य ने बहुत महत्व पूर्ण भूमिका निभाई थी। केवल 32 वर्ष के जीवन काल में ही आदि शंकराचार्य ने हिन्दू समाज को संगठित रखने के लिये समस्त भारत की पदयात्रा करी थी और देश के चारों कोनों में ऐक ऐक शंकराचार्य की अध्यक्षता में चार मठ स्थापित किये थे जो आज दूआरका, जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी और बद्रिकाश्रम के नाम से जाने जाते हैं।
यह आदि शंकराचार्य का प्रताप था कि गुप्त काल के समय भारत में हिन्दू विचार धारा का पुर्नोत्थान हुआ। इस काल को हिन्दूओ का ‘सुवर्ण-युग’ कहा जाता है। तब अंग्रेजी के बिना ही हर क्षेत्र में प्रगति हुई थी। संस्कृत साहित्य में अमूल्य और मौलिक ग्रन्थों का सर्जन हुआ था तथा संस्कृत भाषा कुलीन वर्ग की पहचान बन गयी थी। दुनियां में भारत का विश्वगुरू कि तरह आदर सम्मान था और भारत को ऐक सैन्य तथा आर्थिक महा शक्ति होने के कारण ‘सोने की चिडिया’ कहा जाता था।
लेकिन गुप्त वँश के पश्चात देश में फिर से सत्ता का विकेन्द्रीय करण हो गया और कई छोटे छोटे प्रादेशिक राज्य उभर आये थे। उस काल में कोई विशेष प्रगति नहीं हुयी। कट्टर जातिवाद, राज घरानो में जातीय घमण्ड, और छुआ छूत के कारण समाज घटकों में बटने लग गया था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य विलासिता में घिरने लगे। संकुचित विचारधारा के कारण लोगों ने सागर पार जाना छोड दिया जिस के कारण सागर तट असुरक्षित हो गये, सीमाओं पर सारा व्यापार आक्रामिक अरबों, इरानियों और अफग़ानों के हाथ चला गया। सैनिकों के लिये अच्छी नस्ल के अरबी घोडे भी उप्लब्द्ध नहीं होते थे। अहिंसा का पाठ रटते रटते क्षत्रिय भूल गये थे कि धर्म-सत्ता और राजसत्ता की रक्षा करने के लिये समयानुसार हिंसा की भी जरूरत होती है। अशक्त का कोई स्वाभिमान, सम्मान या अस्तीत्व नहीं होता। इन अवहेलनाओं के कारण देश सामाजिक, आर्थिक, सैनिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल, दिशाहीन और असंगठित हो गया। यह सब इतिहास में है सिर्फ बासी याद्दाशत को ताजा करने के लिये संक्षेप में दोहराया है।
हमारे आधुनिक गुरू
आज फिर से हिन्दू धर्म के विघटन की जड यही ‘घर्म-गुरु’ हैं जिन्हें सिर्फ पैसा और बडे बडे आश्रम बनाने से मतलब है जहाँ वह अपना जीवन ऐश से गुजार सकें। यही गुरु आजकल आदि शंकराचार्य के श्लोक को रट कर हिन्दू समाज को गुमराह करने का काम करते हैं और अपने अपने चेलों को हिन्दू धर्म की मुख्य धारा से भटका कर उन्हें अपने बनाये हुये घटकों में बांट रहै हैं। अब तो यह महाठग ‘धर्म निर्पेक्ष’ बनने लग पडे हैं ताकि इन्हें ‘ग्लोबल मार्किट’ से चेले चेलियां मिल सकें। इन की दृष्टी में सिवाये इन के अपने घटक के, बाकी सभी धार्मिक औपचारितायें ढोंग होती हैं। इन में से अधिकतर कईयों ने किसी वेद, शास्त्र,उपनिष्द आदि का कोई अध्ययन नहीं किया होता और परम्परागत धर्म को नकारने के लिये सिर्फ ऊपर से चिकनी चुपडी बातें और मनघडंत कथायें सुनाते हैं। अपने ही नाम का कीर्तन कराते हैं, भक्तों से अपने चर्ण स्पर्ष करवाते हैं, गुरु दक्षिणा बटोरते हैं। अकसर गर्मियों में सैर करने अमेरिका आदि चले जाते हैं और वहाँ गुरुदक्षिणा डालरों में कमाते हैं। वहां उन्हों ने पहले सी ही अपने किसी स्थानीय भक्त को अपना ‘ऐजेन्ट’ मनोनीत किया होता है जो गुरू की फोटो रख कर गुरू महाराज का ‘प्री-रिकार्डिड’ प्रवचन और गीत सुनाता रहता है। इन गुरूजनो का देश के तत्कालिक आर्थिक, राजनैतिक, और प्रकृतिक विपदाओं से कोई सरोकार नहीं होता। इन का मकसद केवल अपने भक्तों की संख्या बढा कर अपने निजि धर्म की ब्रांचे खोलना मात्र ही होता है।
गुरूजनों का मेकअप उन की विदुत्ता और मानसिक्ता का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब होता है। माथे पर कई रंगों के लेप, लम्बे काले (अकसर ‘डाई’ किये) बाल, भगवे रंग के बढिया डिजाईनर रेशमी कपडे, गले में मोटे मोटे रुद्राक्ष की मालायें, और हाथों में कई तरह की रत्न जडित चमतकारी अंगूठियां इन का सार्वजनिक पहरावा है। निजि रहवास और गाडी ऐयर कण्डीशन्ड होनी चाहिये। गुरू जी कंदमूल तो क्या, आम आदमियों के जैसा खाना नहीं खाते। उन के लिये भोजन बनाने और परोसने की जिम्मेदारी किसी खास चेला-चेली की रहती हैं। वह केवल ‘स्पेशल-प्रसाद’ से ही संतुष्ट हो कर जीवन बिताते हैं। आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टी से सामर्थवान चेले चेलियां ही गुरु महाराज से निजि तौर पर आशीर्वाद पा सकते हैं अन्य भक्तों को दूर से प्रणाम करने कहा जाता है। गीता ज्ञान बांटने के बावजूद साल में ऐक बार किसी आडिटोरियम में गुरू महाराज अपने चेलों से अपनी ‘नशवर देह’ का जन्मदिन भी मनवाते हैं।
नैतिक जीवन का ‘गुरूमन्त्र’ वह किसी ‘पासवर्ड’ की तरह अपने चेलों के कान में ही बताते हैं ताकि उस के ‘गुरूमन्त्र’ से किसी अन्य घटक के हिन्दू को फायदा ना पहुँचे और ‘ट्रेड-सीक्रेट’ बना रहै। सच पूछो तो इन धर्म गुरुओं का योग्दान आम हिन्दू समाज को कुछ नहीं है। यह केवल अपनी अपनी धर्म दुकाने चला रहै हैं और हिन्दू समाज को विघटन को और ले जा रहै हैं। अगर आज गुरु महाराज के पदचिन्हों पर सभी चलें – सिर, दाढी, मूंछ के बाल, माथे पर चन्दन का तिलक, और भगवे वस्त्र पहन कर सभी सरकारी कर्मचारी दफ्तरों में बैठ जायें तो इक्कीसवीं सदी में भारत की छवि का अन्दाजा लगाया जा सकता है।
कोई हिन्दू नहीं जानता कि ऋषि वासिष्ठ, विशवमित्र या व्यास का जन्म कब हुआ था क्योंकि हमारे पुरातन ऋषि मुनि अपनी ‘मार्किटिंग’ करना नहीं जानते थे। किसी ऋषि-मुनि ने निजि ‘ब्रांड’ का समुदाय या घटक धर्म नहीं बनाया था। लेकिन इस तरह के पाखँडियों पर अंकुश लगाने, और समाज का सही दिशा में मार्गदर्शन करने के लिये आदि शंकराचार्य ने चारों मठों में ऐक ऐक शांकराचार्य की स्थापना करी थी।
आंकलन
क्या इस बात का आंकलन करना जरूरी नहीं कि जागरूक हिन्दू समाज की ऐसी दुर्दशा क्यों है। बहस होनी चाहिये कि आज की परिस्थिति में यह चारों शंकराचार्य हिन्दू समाज के उत्थान के लिये क्या योग्दान दे रहै है। चारों शंकराचार्य ने अपने अपने कार्य क्षेत्र में-
अन्धविशवास कुरीतियों, तथा हिन्दू विरोधी मिथ्या प्रचार के विरुध क्या किया है?
दलित समस्या, दहेज प्रथा, अन्य रीति रिवाजों या ड्रग, हिंसा, बलात्कार, तलाक, भ्रूण हत्या आदि के बारे में कभी कोई सक्षम सुझाव हिन्दू समाज को दिया है।
क्या कभी ‘वेलेन्टाईन-डे’ तरह की बाहरी कुरीतियों, ‘लिविंग-इन रिलेशनस’ आदि का सक्षम विरोध या समर्थन किया है।
मन्दिरों, प्राचीन धरोहरों और यात्रियों की सुवाधाओं की दिशा में भी क्या कोई प्रयत्न किया है।
आत्मा परमात्मा, भौतिक विज्ञान, आयुर्वेद या किसी अन्य विषय पर ने कोई ग्रंथ, ‘थियोरी ’ विश्व पटल पर रखी है ?
हिन्दू धर्म के प्रचार के लिये कितने पुस्तकालय या परिशिक्षण के लिये कोई कोर्स चलाये हैं ?
उच्च शिक्षा संस्थानों में भारतीय वैदिक संस्कृति के पाठन के लिये कोई ‘सिलेबस’ तैय्यार किया है जिसे प्रथम वर्ष से स्नातकस्तर तक क्रमशा ले जाया जा सके। इस का विशलेषण होना चाहिये कि क्या वह शिक्षा आधुनिक परिपेश की जरूरतों को ध्यान में रख कर दी जाये गी या सिर्फ ‘पौंगे-पण्डित’ ही तैय्यार करे गी। इस विषय पर आधुनिकता के माप दण्ड क्या और किस प्रकार निर्धारित किये जायेंगे।
हिन्दू समाज को धर्मान्तरण और आतन्कवाद से सुरक्षित रखने के लिये उन्हों ने सरकार से क्या आशवासन मांगा है ?
जब दूसरे धर्मों के लोग ऐक वोट बैंक संगठित कर के इस देश में मनमाने तरीके से अपनी बात मनवा सकते हैं तो हिन्दू धर्म गुरू क्यों लाचार बने बैठे हैं?
आज के हिन्दू समाज में आम तौर पर यह धारणा है कि इन घटक गुरूओं की तरह हमारे शंकराचार्य भी केवल मठों तक ही सीमित हैं और आदि शंकराचार्य के युग में ही जी रहै हैं। आदि शंकराचार्य ने तो पैदल ही समस्त भारत के दूर दराज इलाकों का भ्रमण किया था परन्तु आज के जमाने में यातायात की सुविधायें होने के बावजूद हमारे आधुनिक शंकराचार्य सांप की तरह कुण्डली मार कर अपने मठों में ही जमे रहते हैं जबकि हिन्दू समाज धर्म निर्पेक्षता के बहाने तेजी से पलायनवाद की और जा रहा है। यह जरूरी है कि शंकराचार्य के योग्दान का हिन्दू समाज की जानकारी के लिये और इस संस्थान का आदर्श स्थापित करने के लिये आंकलन कर के प्रचारित किया जाये और हिन्दू धर्म गुरू परदे सा बाहर निकल कर धर्म रक्षा के लिये मैदान में खुले आम आयें।
चाँद शर्मा
बहुत अच्छा लेख !