आलसी कोहरा
कुछ इस तरह बैठा है,
आलसी कोहरा,
पैर पसारे, शाख पर!
हैराँ परेशाँ सा है सूरज,
नहीं समझ पा रहा,
क्या करे वो!
होंगे मेरे.
इंतजार में.
बूढ़े,बच्चे,जवान सारे!
ठिठुरते होंगे,
कड़कड़ाते जाड़े से!
आजाद होना है मुझे,
बादलों की कैद से!
तड़प रहीं हैं मेरी,
रशमियाँ सारी!
आजाद होकर,
पंख फ़ैलाने को !
अपनी नर्म तपिश से,
लोगों को जाड़े से,
राहत दिलाने को !
पक्षी भी हैं इंतजार में,
सारे !
हल्का सा छुटपुटा हो !
और सूरज बादलों से झाँके !
सूरज की आस में बैठी,
एक अम्माँ बेचारी !
सूरज निकले तो ,
चैन की साँस आये !
कुछ लकड़ियाँ बीन लाये !
अलाव सुलगाये !
चाय बनाये !
जाड़े से ठिठुरती ,
बूढ़ी हड़डियों को,
राहत मिल जाये !
सूरज कुछ सोचता है,
बादलों को धकाता है,
खुद अपनी राह बनाता है!
खिल उठते हैं चेहरे सारे !
आलसी कोहरा ,
दुम दबाता है,
भाग जाता है!
…..राधा श्रोत्रिय”आशा
मज़ा आ गिया , बहुत खूब .
बहुत अच्छी कविता, राधा जी.