कविता : बेटी
(यह कविता मैंने उस क्षण की कल्पना करके लिखी है जब मेरी बेटी बड़ी हो जायगी और मुझे उसकी इन् दिनों की याद आयगी तो मैं क्या क्या कल्पना करूँगा. यह मात्र एक कल्पना है और भावनाओं का निचोड़ मात्र है)
मेरी प्यारी बेटी
काश तुम कभी बड़ी न होती
तो आज इन नैनों में
स्नेहस्पद अश्रुओं की
बारिश न होती
काश तुम कभी बड़ी न होती
बिछुड़ने का तुमसे गम न होता
और ह्रदय में कोई
ख्वाहिश न होती
मेरी प्यारी बेटी
मै जानता हु
तुम प्रसन्न नही हो
ससुराल में
सबको अपनाते हुए भी
उनकी अपनी नही हो
फिर भी
कठिन पथ पर चलते हुए
रूकती नही हो
औरों को सुकून देते हुए
थकती नही हो
क्योंकि
तुम्हे याद होगा क़ि
भीषण बारिश और तूफ़ान में
संभालना
मैंने ही सिखाया है
पाषाण ह्रदय को
मोम सामान तरल बनाना
मैंने हे सिखाया है
जो अकड़े हैं
सूखे पेड़ों की भाँती
उनको नरम पत्तों सामान
बनाना मैंने ही सिखाया है
तभी तो
आज तक ससुराल से
शिकायत का एक भी स्वर नही आया है
जो थे मानवता हींन
उन्हें
मानवता का सुर
तुमने ही सिखाया है
सूखी चट्टान को
नरम घास
तुमने हे बनाया है
कर्त्तव्य पथ पर डटे रहकर
अपने कर्तव्यों का मार्गदर्शन
तुमने ही दिखाया है
और देखो
आज वो अवसर भी आया है
जो बहु कहने में हिचकिचाते थे
आज उन्होंने ही
तुम्हे बेटी का मान दिलाया है
यह देखकर
मुझे तुमपर असीम गर्व आया है
इसलिए मै फिर कहता हु
मेरी प्यारी बेटी
काश तुम कभी भी बड़ी न होती
तो आज इन् नैनों में
स्नेहस्पद अश्रुओं की वर्षा न होती
मेरी प्यारी बेटी
मेरी प्यारी बेटी
— महेश कुमार माटा
मेरी भी दो बेतिआं हैं , जितना पियार उन्होंने हमें दिया है और अभी भी यह सिलसिला जारी हैं , कभी भुलाया नहीं जा सकता . बस जब सुसराल में जाती हैं और जो जो उन्हों को सहना पड़ता है इस से ही डर लगता है , सभी लोग एक जैसे नहीं होते मगर जो बेतिओं को परेशान करते हैं उन से ही डर लगा रहता है .
बहुत अच्छी भावनाएं !
Dhanyavad ji