श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी – चर्चा-४
कर्म गीता का मूलमंत्र है। निष्काम कर्मयोग में सारे दर्शन समाहित हैं। Work is worship — कार्य ही पूजा है, का सिद्धान्त गीता से निकला (Derived) है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए श्रीकृष्ण के पूर्व यह मान्यता थी कि संसार का परित्याग कर घने वन, पर्वत पर, नदी के किनारे या गुफा में संन्यास धारण करने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। कृष्ण ने इस मान्यता का खंडन नहीं किया है लेकिन इसे एक अत्यन्त कठिन मार्ग अवश्य बताया है। फिर संन्यासी को भी आवश्यक कर्म तो करने ही पड़ते हैं। भोजन करना, सांस लेना, ध्यान करना कर्म ही तो हैं। कर्म से भागने से काम नहीं चलेगा।
“परित्राणाय साधूनाम,”
“छिन्नद्वैधा यतात्माः सर्वभूतहिते रताः”
“लोकसंग्रहमेवाऽपि सम्पृश्यन्कर्तुमर्हसि”
“अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।”
(गीता ४/८, ५/२५, ३/२०, १२/१३)
साधुओं के परित्राण के लिए, एकात्मकता की अनुभूति के कारण, संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में रति, लोक कल्याण के भाव को देखते हुए कर्म, संपूर्ण भूतों में द्वेष-भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दया का भाव आदि ही सिद्ध पुरुषों के कर्म के आधार रहे हैं। हम सिद्ध तो नहीं हैं, किन्तु साधक तो बन ही सकते हैं। हमारी यात्रा आरंभ तो हो ही सकती है। कर्म की साधना के लिए कृष्ण जो सूत्र देते हैं, वह अद्भुत है –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा तो संगोऽस्त्वकर्मणि॥
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं। इसलिए तू कर्म के फल का हेतु मत हो, तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
मनुष्य के पास वास्तव में वर्तमान का एक ही क्षण रहता है – न भविष्य, न भूत। वर्तमान में वह पूरी तन्मयता से अगर प्रवेश कर जाय, तो भविष्य और भूत की चिन्ता से वह कंपायमान नहीं होता है। श्रीकृष्ण इसीलिए कर्म में अधिकार की बात कर रहे हैं अर्थात वर्तमान में तन्मयता। कर्म करते समय फल की चिन्ता से कर्म की गुणवत्ता प्रभावित होती है और फल पर अधिकार संभव भी नहीं है। फिर कर्म-फल का कारण हम क्यों बनें? इससे अहंकार भी जन्म लेता है और कुण्ठा भी जन्म लेती है। कभी-कभी मन संशय में पड़ जाता है। जीवात्मा के रूप में अर्जुन का द्वन्द्व बिलकुल स्वाभाविक है। श्रीकृष्ण समाधान देते हुए कहते हैं –
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येद कर्मणः॥
अर्जुन! तू निर्धारित हुए कर्म को कर। अर्थात कर्म तो बहुत से हैं। उनमें से कोई एक चुना हुआ है, उसी नियत कर्म को कर। कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं होगा। निष्काम कर्मयोग ऐसी कुंजी है जिससे पुनः शरीरों की यात्रा नहीं करनी पड़ती। “मोक्ष्यसेऽशुभात” – ऐसे कर्म को करने से संसार के अशुभ बंधन से मुक्ति पाई जा सकती है।
पूरी गीता का सार है – निष्काम कर्मयोग। सचिन तेन्दुलकर जब अन्तर्राष्ट्रीय मैच खेलता है, तो स्कोर बोर्ड को देखता नहीं है। गावास्कर भी यही करते थे। इनका स्कोर इनके साथी बताते हैं या शतक बनने के बाद दर्शक। बार-बार स्कोर बोर्ड को देखने से तन्मयता भंग होती है। चित्त को एकाग्र करके खेलेंगे तो रन बनेंगे ही। लेकिन निष्काम कर्मयोग इतना आसान है भी नहीं। इसकी राह में व्यक्ति का अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। कर्म के फल का श्रेय, कर्ता यदि ईश्वर को अर्पित करता है, तो धीरे-धीरे वह अहंकार से मुक्त होता जाता है। फिर कर्म-फल की शुभ या शुभ प्रकृति से वह निर्लिप्त हो जाता है। शुभ भी अच्छा, अशुभ भी अच्छा। ऐसा नहीं कि कर्म करेंगे और फल नहीं आएगा। वह तो आएगा ही। अन्तर इतना ही पड़ेगा कि अहंकारी इसका श्रेय स्वयं लेता है और निरहंकारी श्रेय ईश्वर को देता है। निरहंकारी की फल के प्रति आसक्ति नहीं होती, इसलिए वह कष्ट नहीं पाता है। सारी निराशा, डिप्रेशन, सारे दुख का कारण है – अपेक्षा। दूसरे आपको दुख नहीं देते, आप स्वयं आमंत्रित करते हैं। पुत्र से अपेक्षाएं, पुत्री से अपेक्षाएं, पत्नी से अपेक्षाएं, भाई से अपेक्षाएं, मित्र से अपेक्षाएं……………मैंने इनलोगों के लिए क्या नहीं किया, बदले में मुझे क्या मिला? कभी-कभी ऐसा होता है कि आपने दूसरों से अपेक्षाओं का पहाड़ खड़ा कर लिया और उसे कुछ पता ही नहीं है। क्या यह सत्य नहीं कि आपके अधिकांश दुखों के कारण आपके वे अपने हैं, जिन्हें आप सर्वाधिक प्यार करते हैं? आप दुखी इसलिए हैं कि आप अपने प्यार का, त्याग का प्रतिदान चाहते हैं, जो अपेक्षा के अनुसार मिल नहीं पाता। इस “प्यार” और “त्याग” के पीछे आपका अहंकार है। जिस दिन आपका अहंकार समाप्त हो जाएगा प्रतिदान की अपेक्षा स्वतः समाप्त हो जाएगी। बच्चों का लालन-पालन करना कोई अनोखा काम नहीं है, फिर प्रतिदान कैसा? युगों-युगों से समस्त प्राणी यही तो करते आ रहे हैं। जब यह कार्य अहंकार शून्य होकर किया जाता है, तो यह पावन कर्त्तव्य बन जाता है, जिसे मातृ-धर्म या पितृ-धर्म कहते हैं। श्रीकृष्ण अपने धर्म के पालन पर विशेष जोर देते हैं। अहंकार रहित कर्म ही धर्म बन जाता है। कोई विशेष पूजा-पद्धति या प्रचलित कर्म-काण्ड गीता प्रणीत धर्म की परिभाषा में नहीं आते हैं।
छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों से मेरा प्रश्न है कि गीता द्वारा प्रतिपादित कर्म की परिभाषा क्या सार्वभौम और सर्वकालिक नहीं है? इस उच्च दर्शन में कहां सांप्रदायिकता दृष्टिगत होती है? वैसे यह भी सत्य है कि जिसकी सूंघने की शक्ति समाप्त हो जाती है, उसे रातरानी से भी खुशबू नहीं आती।
क्रमशः
गीता पर आपकी लेखमाला अच्छी है.
अच्छा लेख .