आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 19)
लेकिन वर्षो की आदत छूटना आसान नहीं है, अतः पहले सेमिस्टर में हमारा रवैया बहुत कुछ लापरवाही का ही रहा। यह हालत हमारी तब तक रही जब तक कि हमारा प्रथम सेमिस्टर का परिणाम नहीं आ गया। प्रथम सत्र की परीक्षाओं के तुरन्त बाद हमारी द्वितीय सत्र की कक्षाएं शुरू हो गयीं थीं। ऐसे ही एक दिन अचानक हमारा प्रथम सत्र का परीक्षाफल आ गया, जिसे देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये। कक्षा के समस्त छात्रों में केवल मैं दोनों लिखित पर्चों तथा पृक्टीकल में उत्तीर्ण था। बाकी में से केवल दो लोग एक तो कु. कल्पना कपूर तथा दूसरा थानाशेखर केवल एक-एक पर्चे में फेल थे और वह पर्चा लहरी साहब का था। लहरी साहब के पर्चे में केवल मैं उत्तीर्ण था, वह भी केवल 2 अंकों से बाकी सब उनके पेपर में फेल थे। ज्यादातर लोग दो पर्चों में फेल थे और दो अभागे तो ऐसे थे जो दोनों पर्चो और पृक्टीकल में भी अनुत्तीर्ण हो गये थे।
उस दिन मुझे पहली बार अपने भाग्य से ईर्ष्या हुई। साथ ही मुझे दुःख भी हुआ कि मेरे योग्य सहपाठी लहरी साहब के पर्चे में फेल हो गये थे। यहाँ मैं यह बता दूँ कि जब हमारी पढ़ाई नई-नई शुरू हुई थी, उस समय दक्षिण के श्री एल.यू. विजयकुमार तथा अन्य एक-दो छात्र कक्षा में बहुत मुखर थे। तब मैं सोचा करता था कि हममें अच्छी प्रतिस्पर्धा होगी। मैं कुछ शंकित भी था कि इनसे ज्यादा अच्छा सिद्ध हो सकूँगा या नहीं। लेकिन शीघ्र ही मुझ पर यह प्रकट हो गया कि ये लोग मात्र कागज के शेर हैं। इसलिए भी मैं कुछ लापरवाह हो गया था। लेकिन मुझे इस बात की आशंका नहीं थी कि मेरी लापरवाही का परिणाम इस हद तक भी जा सकता है। मैं फेल होते-होते बाल-बाल बचा था।
तुरन्त ही मैंने तय किया कि अब इस रवैये से काम नहीं चलेगा। और मैं पढ़ाई के प्रति गंभीर हो गया। सौभाग्य से द्वितीय सत्र में हमारे कोर्स और अध्यापक भी काफी अच्छे थे। अतः जो लोग प्रथम सत्र के एक दो पेपरों में फेल हो गये थे, उन्हें इस बात की उम्मीद थी कि द्वितीय सत्र के सभी पर्चों में पास होकर अगले सत्र में पढ़ने के अधिकारी हो जायेंगे, क्योंकि तृतीय सत्र में पहुँचने के लिए पहले दो सत्रों के कम से कम आधे कोर्सों में उत्तीर्ण होना आवश्यक था।
द्वितीय सत्र में हमने जमकर मेहनत की। जब हमारी परीक्षा हुई तो मैं काफी संतुष्ट था। मेरे सभी पर्चे तथा पृक्टीकल आशा के अनुरूप ही हुए थे। गर्मी की छुट्टियों के बाद हमारी तृतीय सत्र की पढ़ाई भी शुरू हो गयी थी। हालांकि तब तक द्वितीय सत्र का परीक्षाफल नहीं आया था।
पढ़ाई शुरू हुए अभी सप्ताह भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन डा. जोशी बदहवास से हमारी कक्षा में आये और उस दिन उन्होंने जो समाचार सुनाया उसे सुनकर हम सब स्तब्ध रह गये। उन्होंने कहा कि केवल तीन लोग विजय, दानी और कल्पना तृतीय सेमिस्टर में पहुँचे हैं। अतः बाकी लोगों को इस सेमिस्टर में पढ़ना बेकार है। यह समाचार हम सबके लिए वज्रपात के समान था। हालांकि मैं स्वयं उत्तीर्ण हो गया था, लेकिन मुझे इस बात का दुःख भी था कि मेरे कई घनिष्ट मित्रों का साथ छूट गया था। सबसे ज्यादा दुःख मुझे एल.यू. विजयकुमार के फेल होने का था। यद्यपि वह पढ़ने में लापरवाही करता था, लेकिन मुझे इस बात की आशंका नहीं थी कि वह इस बुरी तरह फेल हो जायेगा।
वैसे एल.यू. विजयकुमार बहुत योग्य और प्रतिभाशाली था। प्रथम तथा द्वितीय सत्रों के दौरान हम दोनों में काफी घनिष्टता थी। उसका गणित का ज्ञान तथा सांसारिक बातों का ज्ञान भी मुझसे काफी अच्छा था। अपने इंस्टीट्यूट तथा यूनीवर्सिटी के पुस्तकालयों का वह सबसे बड़ा पाठक था। मैं स्वयं बहुत कम पुस्तकालय जाता था और पुस्तकालयों से अधिक परिचित भी नहीं था। अतः जब भी मुझे किसी विशेष पुस्तक की आवश्यकता होती थी और मैं स्वयं उसे नहीं खोज पाता था, तो एल.यू. ही मेरे लिये वह पुस्तक ढूँढ़ कर ला देता था।
प्रारम्भ में उसका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। लेकिन वह जिस होस्टल में रहता था, वहाँ लगातार तीन महीने तक उसकी बुरी तरह रैगिंग की गयी थी, जिसके कारण उसे सिगरेट की बुरी लत लग गयी थी और कभी-कभी वह शराब भी पीने लगा था। इसका प्रभाव उसके स्वास्थ्य और मस्तिष्क पर पड़ना ही था। अतः एक साल में ही वह हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था और उसकी खाल लटक सी गयी थी। फिर भी मैंने उसे सुधारने की बहुत कोशिश की। कई बार मैं उसे अपने सामने सिगरेट पीने से रोक देता था। हम दोनों काफी देर तक बातें किया करते थे। मेरी सुनने की असमर्थता के कारण उसे सारी बातें लिखनी पड़ती थी, लेकिन घंटों बातें करने के बाद भी वह थकता नहीं था और हम कभी तृप्त नहीं होते थे। उन्हीं दिनों मेरा अंग्रेजी का ज्ञान काफी बढ़ा और मेरी अंग्रेजी बोलने का अभ्यास भी उसी के साथ हुआ। इससे पहले मैं न तो अंग्रेजी बोल पाता था और न अंग्रेजी समाचारपत्र ही अच्छी तरह पढ़ पाता था। ज्यादातर केवल हैड लाइनें पढ़कर ही छोड़ देता था। लेकिन उन दिनों में अंग्रेजी अच्छी बोलने और पढ़ने लगा था। हालांकि मेरी अंग्रेजी पढ़ने की रफ्तार हिन्दी के मुकाबले अभी भी काफी कम थी।
(पादटीप : एल यू विजयकुमार आजकल एक ग्रामीण बैंक में मैनेजर हैं और गुंटूर में रहते हैं.)
एल.यू. का साथ छूटने का मुझे बहुत दुःख हुआ, लेकिन शायद यही ईश्वर की इच्छा थी। अब हमारी कक्षा में केवल तीन व्यक्ति रह गये थे- मैं, अरुणपाल दानी और कु. कल्पना कपूर। वैसे एक चैथे श्रीमान् भी थे- श्री मलिक, जो हमसे एक साल सीनियर थे। उनका नियम एक साल में एक सेमिस्टर उत्तीर्ण करने का था। हमारे चले आने के दो साल बाद ही वे ‘सज्जन’ एम.स्टेट. पूर्ण कर पाये। लेकिन आजकल वे एक बहुत अच्छी पोस्ट पर हैं।
तृतीय सेमिस्टर में हमारा एक विषय तो Non-parametric Statistics था जिसे श्री गौतम पढ़ाते थे। दूसरा विषय हमारे लिए ऐच्छिक था और उसका चुनाव हमें स्वयं करना था। उस समय हमारे सामने दो विकल्प थे- ‘आपरेशन्स रिसर्च’ (Operations Research) तथा ‘कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग’ (Computer Programming) जिन्हें क्रमशः डाॅ. सेठी और श्री लहरी पढ़ाते थे। हम बहुत ही दुविधा में थे कि कौन सा विषय लिया जाये। एक दिन हमने दोनों से निवेदन किया कि वे अपने-अपने कोर्सों के बारे में बतायें। डाॅ. सेठी ने बताया कि आपरेशन्स रिसर्च काफी सरल विषय है और हम चाहें तो स्वयं किताबें पढ़कर समझ सकते हैं। श्री लहरी ने बताया कि कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग भी सरल है लेकिन उसमें कौशल (Aptitude) की बहुत आवश्यकता होती है तथा नौकरी आदि के लिए भी यह बेहतर है।
स्वाभाविक रूप से मेरी इच्छा कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग लेने की ही थी, लेकिन मैं डर इसलिए रहा था कि पिछले साल जो सात लड़के इस विषय को पढ़ रहे थे, वे सबके सब इसमें फेल हो गये थे। मैं सोच रहा था कि यह न जाने क्या बला है। अन्ततः मैंने यही विषय लेना तय किया, क्योंकि चुनौतियों को स्वीकार करना मेरी आदत ही नहीं शौक भी है। मेरे साथ केवल दानी ने ही यह विषय लिया और कल्पना के साथ पिछले साल के फेल होने वाले छात्रों ने भी आपरेशन्स रिसर्च को पसन्द किया।
शीघ्र ही मेरे सामने यह स्पष्ट हो गया कि कम्प्यूटर का जो हौवा छात्रों के मन में बैठा हुआ था, वह निराधार था। मैंने उसे बहुत मजेदार चीज पाया क्योंकि इसके द्वारा हम अपनी इच्छा के अनुसार कोई भी कार्य करा सकते थे। सौभाग्य से श्री लहरी के रूप में एक अच्छा शिक्षक और दानी के रूप में एक अच्छा साथी भी मुझे प्राप्त हुआ, जिसके कारण मुझे कभी कठिनाई महसूस नहीं हुई।
अब तक हमारे मन में श्री लहरी की छवि कोई बहुत अच्छी नहीं थी। लेकिन इस कोर्स के दौरान हम उनके अत्यधिक नजदीक आ गये। मैं पढ़ने में तेज सदा से रहा ही हूँ, इसके अलावा लहरी साहब ने मुझमें मौलिक चिन्तन और समस्या को हल करने का गुण भी देखा, जिसकी कि कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में अत्यधिक आवश्यकता होती है। मेरी बुद्धि के पैनेपन से वे इतने खुश रहते थे कि प्रोग्रामिंग कला की जितनी भी बारीकियाँ वे जानते थे, सारी की सारी मुझे सिखा दीं।
दो-तीन बार हम अलीगढ़ विश्वविद्यालय के कम्प्यूटर केन्द्र पर भी गयी थे, क्योंकि हमारे पास कोई कम्प्यूटर नहीं था। लहरी साहब भी हमारे साथ जाते थे। इस विषय में मेरा प्रदर्शन काफी अच्छा रहा और मैं स्वयं बहुत संतुष्ट था। कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की जो नींव लहरी साहब ने उस समय Fortran के माध्यम से मेरे दिमाग में डाली, वह इतनी मजबूत है कि उसके बाद अन्य कई कम्प्यूटर की भाषाएँ मैं स्वयं सीख गया और मेरे आसपास के लोग मुझे सबसे अच्छा प्रोग्रामर कहा करते थे (और हैं)।
मैं अंग्रेजी में अभी भी परिपक्व नहीं था, क्योंकि अंग्रेजी पढ़ने की मेरी गति काफी कम थी। अतः मैं ज्यादातर हिन्दी की पुस्तकें ही पढ़ा करता था। मुझे मुख्यतः कहानी और राजनैतिक चिन्तन की पुस्तकें पसन्द हैं। एक दिन लहरी साहब ने राजनीति पर कोई हिन्दी की किताब मेरे हाथ में देख ली, जिसे मैं आगरा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से लाया था। उन्होंने जिज्ञासावश पूछा कि मैं किस विषय की पुस्तकें पढ़ता हूँं। मैंने बताया, तो उन्होंने फिर पूछा कि हिन्दी में ही क्यों पढ़ते हो। मैंने कहा कि अंग्रेजी में मेरी स्पीड काफी कम है, अतः हिन्दी की ही पढ़ता हूँ। तो उन्होंने कहा कि मैं अंग्रेजी की अपनी स्पीड बढ़ाने के लिए जेम्स हैडली चेज के उपन्यास पढ़ा करो। मैंने कहा कि ठीक है पढूँगा।
मेरे जान पहचान के व्यक्तियों में उन दिनों कु. कल्पना ही अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ा करती थी। मैंने उससे पूछा कि क्या आगरा विश्वविद्यालय में जेम्स हैडली चेज के उपन्यास मिल जायेंगे? उसने बताया कि एक या दो उपन्यास शायद हैं। ढूँढ़ने पर मुझे दो उपन्यास मिल गये और मैंने पढ़ना शुरू किया। अंग्रेजी का उपन्यास पढ़ने का मेरा यह पूरी जिन्दगी में पहला मौका था। पहले उपन्यास को मैं 5-6 दिन में ही पूरा पढ़ सका, लेकिन शीघ्र ही मैंने महसूस किया कि अंग्रेजी पढ़ने की मेरी गति काफी बढ़ गयी है। हालांकि तब तक वह उस स्तर तक नहीं आ पायी थी।
इसके बाद मैंने जेम्स हैडली चेज के ही अंग्रेजी के एक दो उपन्यास और पढ़े, जिससे मेरी गति में और वृद्धि हुई। तब से मैं अंग्रेजी के सैकड़ों उपन्यास पढ़ चुका हूँं। हिन्दी के तो और भी ज्यादा पढ़े होंगे। लेकिन सच कहूँ तो मुझे अंग्रेजी के उपन्यासों में ऐसा कुछ नहीं मिला जो हिन्दी के उपन्यासों में न हो। हाँ, इयान फ्लेमिंग, हैराल्ड रौबिन्स, अगाथा क्रिस्टी, जेम्स हैडली चेज जैसे कुछ उपन्यासकारों की कोटि के जासूसी उपन्यासकार हिन्दी में अभी नहीं हुए हैं। मैं अंग्रेजी का कट्टर विरोधी और हिन्दी का प्रबल समर्थक रहा हूँ और हूँ, फिर भी मैं इस बात का विरोधी नहीं हूँ कि आवश्यकता पढ़ने पर अंग्रेजी साहित्य का लाभ उठाया जाय। अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने से मेरे मन में अंग्रेजी के प्रति जो कुरुचि थी, वह समाप्त हो गयी और यह गुण बाद में अर्थात आगे की पढ़ाई में मेरे बहुत काम आया, जब मुझे सैकड़ों अंग्रेजी पुस्तकों में से अपने मतलब की चीजें निकालनी पड़ती थीं। सही समय पर बहुत उपयोगी सलाह देने के लिए मैं लहरी साहब का सदा कृतज्ञ रहूँगा।
तीसरे और चौथे सत्र में हमें एक परियोजना (Project) पर काम करना था, जिसका उद्देश्य था अभिवृत्ति (Attitude) अर्थात धारणा मापकों का निर्माण। इसमें किसी विषय के बारे में सैकड़ों संभावित प्रश्नों में से एक विशेष तकनीक से कुछ प्रश्नों को छाँटकर एक प्रश्नावली तैयार की जाती है। उस प्रश्नावली के उत्तर किसी व्यक्ति से माँगे जाते हैं, जिसकी अभिवृत्ति को मापना होता है। उसके उत्तरों से यह पता लगाया जाता है कि वह व्यक्ति उस वस्तु या विषय के प्रति कैसी धारणा रखता है – सकारात्मक या नकारात्मक।
कल्पना, दानी और मैं – तीनों ने मिलकर यह प्रोजेक्ट सफलतापूर्वक किया। हालांकि हमने इस पर ज्यादा मेहनत नहीं की थी। लेकिन यह डा. सेठी के मार्गदर्शन का ही परिणाम था कि कुल मिलाकर हमारा प्रोजेक्ट अच्छा रहा। कल्पना और दानी दोनों ने अपनी-अपनी रिपोर्ट अंग्रेजी में लिखीं। मैं प्रारम्भ से ही अंग्रेजी विरोधी और हिन्दी समर्थक हूँ। अतः मैंने एक नया कार्य करने के इरादे से अपनी रिपोर्ट हिन्दी में ही लिखने की इच्छा व्यक्त की। उस संस्थान में यह बड़े साहस, बल्कि दुस्साहस की बात थी कि सांख्यिकी जैसी विषयों की प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिन्दी में लिखी जाय। लेकिन मेरे सौभाग्य से डा. सेठी ने मुझे इसकी इजाजत दे दी और मैंने हिन्दी में लिखकर अपनी परियोजना का प्रतिवेदन जमा भी कर दिया।
(जारी…)
विजय भाई , आप की कड़ी मिहनत पर बहुत हैरानी और ख़ुशी होती है किओंकि जो सूझ बुझ आप रखते हैं साधारण आदमी में नहीं हो सकती . आप की कहानी पड़ कर मन में आता है कि काश मैं फिर से कालिज में भारती हो जाता और आप जैसे लोगों का साथ मिलता .
सही कहा आपने, भाईसाहब. आज मैं जो कुछ भी हूँ अपनी मेहनत, बड़ों के आशीर्वाद और सबसे ऊपर प्रभु की कृपा से हूँ. मैं आज भी दिन रात मेहनत करता हूँ.
padha …
धन्यवाद, खोरेन्द्र जी !
यद्यपि यह लेख आपके जीवन की विकास यात्रा का दस्तावेज़ है परन्तु इसमें हम सभी के लिए नई चीजे जानने और ग्रहण करने योग्य बहुत कुछ है। इस प्रेरणादायक लेख के लिए धन्यवाद एवं बधाई।
हार्दिक धन्यवाद, मान्यवर !