मानवता कंगाल हो गयी
कलम भी आज काँप रही हैं, शब्दों की मासुमियत खो गयी—
मासूमों के, लहू से देखो,
धरती माँ, घायल हो गयी!
पिता की, पथरा गयी हैं आँखें,
माँओं की कोखें, सूनी हो गयी!
बहशी दरिन्दों की ,करतूतो से , आज मानवता, कंगाल हो गयी—–
जिनके आने के, इंतजार में,
बिछी रहती थी, जो आँखें !
कलेजे के, उन टुकडों, की जब,
सामने बिछी ,लाशें हो गयी!
किस तरह का ,कहर खुदा है,
तेरी खुदाई पर, सवाल उठा है!
माँयें बिना मोत, ही मर गयी, और पिता की, लाठी छिन गयी—
वो नर पिशाच, न जाने,
क्या माँ की, ममता होती!
रंगो मे जिनके, खून नहीं,
बारूदों का ,मैल भरा हो,
उनको जनने, वाली कोख ,
देखो आज,कलंकित हो गयी!
रहमत पर तेरी, आज सवालात, खुदा है, कहाँ तेरी, रहनुमाई, खो गयी—-
जहाँ गूँजती थी, किलकारी,
आज बियाबाँन, हो गयी !
हर घर ,शमशान हुआ,
पिता के सपनो की, अर्थी उठ गयी!
कलम भी आज, काँप रही हैं, शब्दों की, मासुमियत ,खो गयी—
.
..राधा श्रोत्रिय”आशा”
बहुत मार्मिक कविता ! इस्लामी आतंकवादियों के मानवता की आशा करना व्यर्थ है. दानव हैं ये!