बावरा– भाग २
क्रोध हुआ है मन का जेवर
आँखों में भड़के है शोले
और हृदय हैं आग के गोले
फन फैलाए अगर नाग भी
छोड़े इसके आगे झाग भी
ये ना इक क्षण को घबराया
इसलिए बावरा है कहलाया
ठौर ठौर पर शत्रु की सत्ता
जहर बन चूका पत्ता पत्ता
सांस हुआ लेना है दूभर
जी ना पाए मानव भू-पर
हर पल हर क्षण है अँधियारा
जैसे प्रकाश भी तम से हारा
ये ना इक क्षण को घबराया
इसलिए बावरा है कहलाया
रिश्ते टूटे हाथ हैं छूटे
अपनों ने अपने घर लूटे
मन से हारे सभी सहारे
सबको मिल मिल गए किनारे
पल पल रणसंग्राम है जीवन
बदल बदल आयाम है जीवन
ये ना इक क्षण को घबराया
इसलिए बावरा है कहलाया
मंजिल भूल गए जब राही
मची धूप में थी कोताही
छाँव छाँव को हर मन रोया
रो रो अपना जीवन खोया
आग के जब बरसे अंगारे
मानव जल जल गए थे मारे
ये ना इक क्षण को घबराया
इसलिए बावरा है कहलाया
विपरीत परिस्थिति में ले साहस
पी पीकर जीवन के सब रस
कालकूट को गले लगाया
ह्रदय से सबका साथ निभाया
मिला ना फिर भी सच्चा कोई
मन से आस नहीं पर खोई
ये ना इक क्षण को घबराया
इसलिए बावरा है कहलाया
____सौरभ कुमार
अच्छी कविता. आपने इसके माध्यम से अपनी भावनाओं को खूबसूरती से व्यक्त किया है.