है प्रेम अमर
तुम …धरती के
सरोवर की सुन्दरता हो
हे कमली …!
गुलाबी .कभी नीली ,तेरी पंखुरी
तुम्हें हुआ क्यों भरम
यह काम नही ..प्रेम परम
यह कहता उतर
अम्बर से
एक भ्रमर
तुम अपनी जमीन की जड़ो पर टिकी रहना
नाल पर मुकुट सा
ताल मे
पात पर
अपनी -खिली रहना
गुंजन करता हूँ मैं लिये
एकांत का मधुर स्वर
जैसे ..गुनगुनाता होऊं …
इस प्रकृति का मूळ प्यारा
तुम्हारे लिये एक गीत हरदम
यह कहता
उतर अम्बर से
मै
एक भ्रमर
तुम स्थिर हो -जल तरंगो कों सहती
मै चंचल उड़ता -जिधर हवा हो बहती
सम्मोहित हो जाता
तुम्हारी परछाई कों भी देख भली
मै
ऐसा ही हूँ एक अली
पर बिठा तुम
अपने सुकुमार अंक
कर लेती किसी सांझ मे मुझे बंद
और तुम्हारी पंखुरीया समेट लेती
अपने सभी अंग
मै तब
प्राण निछावर कर देता
उस मधुयामिनी के संग
फिर
प्रात: खिल जाते तेरे हरेक पंख
पर तेरी आँखों से बहते अश्रु
ओस बूंदों सा नम बन
मुझे बहा ले जाता तब
प्रेम मय जग का मधुर जल
हे कमली
मत कर भरम
यह काम नही
है प्रेम अमर
मै –
कह रहा एक भ्रमर
किशोर कुमार खोरेंद्र
वाह वाह !
prashansa ke liye aabhaar