आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 20)
तीसरे और चौथे सत्र में भी हमारा प्रदर्शन काफी अच्छा रहा, लेकिन कल्पना कुछ अंकों से ही प्रथम श्रेणी लाने से रह गयीं। कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में मेरे अंक 150 में से 124 थे जो कि उस समय तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। मुझे मालूम नहीं यदि किसी ने अब यह रिकार्ड तोड़ दिया हो।
एम.स्टेट में मेरे कुल अंक थे 71.5 प्रतिशत, जो कि काफी संतोषजनक हैं। यद्यपि ये बहुत ज्यादा नहीं है और न इनसे किसी की सही योग्यता का पता चलता है। हाँ कभी-कभी हम अंकों से कुछ अनुमान अवश्य लगा सकते हैं, यद्यपि अनुमान सही होने की कोई गारन्टी नहीं है। वास्तव में मैंने यह अनुभव किया है कि परीक्षा में प्राप्त किये गये अंक किसी को योग्यता का सही परिचायक नहीं होते। कई बार मैंने यह देखा है कि एक छात्र जो परीक्षा में औसत या औसत से कुछ ऊपर रहता है, बुद्धि और योग्यता में औसत से काफी अधिक होता है। उनमें मौलिक सूझबूझ और समस्याओं को हल करने का गुण (जिसे अंग्रेजी में कहते हैं- ट्रबल शूटिंग) बहुत अधिक मात्रा में होता है। इसके विपरीत, कई छात्र जो परीक्षाओं में बहुत अधिक अंक लाया करते थे, वास्तव में बहुत औसत दर्जे के थे। उनमें मौलिक चिन्तन नाम मात्र को भी नहीं थी और वे केवल पढ़ाये हुए को रटने में श्रेष्ठ थे। ऐसे लोगों को हम प्रायः ‘रट्टू तोता’ कहा करते थे। कक्षा में वे शायद ही कभी वाद-विवाद में भाग लेते होंगे। लेकिन उनकी याददाश्त काफी अच्छी होती थी। कहने का मतलब यही है कि परीक्षा के अंक किसी की योग्यता का सही परिचय नहीं देते। बुद्धि और ज्ञान में काफी अन्तर है। हमारी शिक्षा और परीक्षा प्रणाली की यह एक बिडम्बना है कि हम छात्रों की बुद्धि के बजाय उनके ज्ञान की ही परीक्षा लेते हैं।
एम.स्टेट के दौरान के दो वर्ष मेरी जिन्दगी के सर्वश्रेष्ठ वर्षों में से हैं। उन दिनों मैं हवा में उड़ा करता था। अपनी सफलताओं के कारण मुझमें अत्यधिक आत्मविश्वास और कुछ मात्रा में घमंड पैदा हो गया था।
बी.एससी. के विपरीत एम.स्टेट में हमारी सहपाठिनी कु. कल्पना मुझसे खूब बातें किया करती थी। खास तौर से तीसरे और चौथे सत्र में बहुत नजदीक आ गये थे। हम केवल तीन व्यक्ति कक्षा में थे, अतः बातें करने का मौका भी खूब मिला करता था।खाली समय में हम घंटों बातें किया करते थे। जिनका विषय राजनीति से लेकर शेरो-शायरी तक होता था। मेरा सामान्य ज्ञान अच्छा था ही, सौभाग्य से कल्पना का सामान्य ज्ञान भी बहुत विस्तृत था। मुझे शेरो-शायरी में काफी रुचि बचपन से ही है। हजारों शेर मुझे याद रहते हैं। कल्पना को शेर सुनना बहुत पसन्द था। कई बार वह मुझसे शेर सुनाने का आग्रह किया करती थी और पसन्द आने पर ‘वाह! वाह!!’ करने लगती थी।
राजनीति में हमारा प्रायः मतभेद रहता था। मैं राष्ट्रवादी विचारधारा का होने के कारण जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थक था, जबकि वह कांग्रेस समर्थक थी। फिर भी हमारी बहस में कटुता नहीं आ पाती थी। केवल एक बार ऐसा हुआ जब मुझे कल्पना पर बहुत क्रोध आया था। उस समय श्री जय प्रकाश नारायण की चर्चा चल रही थी। शायद उन्हीं दिनों उनका देहान्त हुआ था। मैं जय प्रकाश जी में बहुत श्रद्धा रखता था जबकि कल्पना उनकी आलोचना करती थी। एक बार उसने आलोचना करते-करते कहा कि जे.पी. पैसे खाता है। इसी बात पर मुझे बहुत गुस्सा आया। जय प्रकाश जी जैसे त्यागी महापुरुषों के बारे में ऐसा सोचना तक पाप है। उस समय मैंने कल्पना को बहुत डाँटा और यहाँ तक कह दिया कि मैं इस तरह की बातों को सहन नहीं करूँगा। कल्पना बेचारी सहम गयी थी।
यह हमारे लिये पहला और आखिरी मौका था, जब मुझे वास्तव में उसके ऊपर गुस्सा आया था। वैसे मामूली बातों पर नोंक-झोंक चलती रहती थी जो तुरन्त ही समाप्त भी हो जाती थी। उसके संग की वजह से मेरा मन उस संस्थान में खूब लगता था और इच्छा होती थी कि बस यहीं बैठे उससे बातें करता रहूँ।
लेकिन तमाम खुलेपन के बाबजूद कल्पना हमसे सदा एक तरह की दूरी बनाये रखती थी। उसने कभी भी हमारे साथ किसी दिन चाय तक नहीं पी। जब कभी भी मैंने उससे चाय पीने का प्रस्ताव किया, उसने इन्कार कर दिया। केवल एक बार उसने चाय पीने का मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया था। उस दिन जब हम आखिरी बार मिले थे और हम प्रोजेक्ट की मौखिक परीक्षा दे रहे थे। मगर मेरा दुर्भाग्य कि उस दिन चाय की दुकान बन्द थी। हाँ उस दिन कल्पना ने मेरे हाथ से गुलाब के दो फूल अवश्य ले लिये थे। हुआ यह था कि मौखिक परीक्षा से पहले मैं किसी कार्यवश यूनीवर्सिटी के होस्टल गया था। वहाँ से आदतन मैं गुलाब के दो अच्छे-अच्छे फूल तोड़ लाया था। इससे पहले जब कभी मैंने कल्पना को फूल देने की कोशिश की थी, उसने साफ मना कर दिया था। लेकिन उस दिन उसने मेरे हाथ से फूल ले लिया। शायद मुझे संतुष्ट करने के लिए, क्योंकि वह जान गयी थी कि आज हमारे मिलने का आखिरी दिन है। उस दिन मुझे काफी खुशी हुई थी।
कल्पना ने हमारे साथ चाय भले ही कभी न पी हो, लेकिन पानी हम रोज ही साथ-साथ पिया करते थे। मेरे संतोष के लिए वही काफी था। उन दिनांक हमेशा की तरह गर्मियों में पानी की किल्लत हो गयी थी। कई बार ऐसा हुआ कि इंस्टीट्यूट में एक बूँद भी पानी नहीं मिलता था और हमें घंटों प्यासे रह जाना पड़ता था। हम प्रायः पास की किसी कैन्टीन में जाकर प्यास बुझा लेते थे लेकिन कल्पना को कैन्टीन के नाम से ही चिढ़ थी। शायद इसीलिए वह हमारे साथ कभी चाय पीने नहीं गयी। अतः उसके पीने लायक पानी की खोज मुझे करनी पड़ती थी। उसकी प्यास बुझाकर मुझे बहुत खुशी होती थी। ऐसा ही एक दिन था जब मुझे अत्यधिक संतोष हुआ था।
वह दिन हमारे पृक्टीकल का था। इन्स्टीट्यूट में पानी नहीं था और हम प्यासे ही पृक्टीकल करते जा रहे थे। पृक्टीकल साढ़े चार बजे समाप्त होता था। पृक्टीकल समाप्त करके हम चलने लगे। कल्पना का घर दूसरी तरफ था। अतः वह जल्दी चली। तभी मेरे पास से एल.यू. विजयकुमार गुजरा। मैंने उससे पूछा कि क्या यहाँ आसपास कहीं पीने का पानी है। उसने कहा कि है। तब मैंने कल्पना को आवाज देकर रोका। उसने कहा- ‘क्या है?’। मैंने पूछा- ‘पानी पीओगी?’। उसने समझा कि मैं उससे मजाक कर रहा हूँ। अतः कुछ गुस्से में बोली- ‘तुम्हारा दिमाग खराब है।’ उसका चेहरा प्यास की वजह से एकदम लाल पड़ गया था और वह बहुत प्यासी लग रही थी। मैंने कहा- ‘गुस्सा मत करो, एल.यू. कह रहा है कि बगल वाले इन्स्टीट्यूट में पानी है।’ उसे मेरी बात का विश्वास नहीं आया। फिर शायद उसने सोचा कि देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। अतः हम तीनों उस संस्थान में गये। वहाँ मैंने कूलर की टोंटी दबाई और पानी निकलने पर कल्पना ने हाथ लगाकर देखा कि पानी ठंडा है। तुरन्त उसने अपना हैंड बैग और किताबें मुझे पकड़ायीं और पानी पीने लगी। जी भर कर उसने पानी पिया। उसका चेहरा जो प्यास की वजह से एकदम लाल हो गया था अब काफी सौम्य लग रहा था। उस समय मुझे जितनी खुशी हुई उसे शब्दों में नहीं बता सकता। फिर मैंने भी खूब पानी पिया और अन्त में एल.यू. ने पिया। तब हम अपने अपने रास्ते चले गये।
कल्पना के साथ मेरा एक अन्य अनुभव बहुत विलक्षण रहा, जो हालांकि मुझे लिखना नहीं चाहिए, लेकिन मैं लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। हुआ यह कि एक दिन हम कक्षा में लहरी साहब का इन्तजार कर रहे थे। तभी कल्पना ने हमसे कहा कि आज क्लास छोड़ दो। दानी तुरन्त तैयार हो गया, लेकिन मैंने मना कर दिया। कल्पना ने फिर कहा और मैंने फिर मना कर दिया। तो उसने कुछ गुस्से में और कुछ शरारत से मेरी तरफ आँखें निकालकर देखा। उसका इरादा शायद मुझे नर्वस करने का था। मैंने भी उसकी आँखों में आँखें डाल दीं। कल्पना उस समय धीमे-धीमे कुछ शरारत से और कुछ प्यार से मुस्करा रही थी और कुछ गुस्से में मेरी आँखों में देख रही थी। मुझे उस समय ऐसा महसूस हुआ जैसे उसकी आँखों में सारी दुनिया समा गयी हो। हम एक दूसरे की आँखों में आँखें डालकर लगभग 2 मिनट तक खड़े रहे। उस समय दानी चला गया था, केवल एल.यू. पास में खड़ा था।
कल्पना मुझे डराकर मेरी नजरें झुकाना चाहती थी। लेकिन मैंने भी तय कर लिया था कि नजरें झुकानी नहीं हैं, क्योंकि मुझे उसकी आँखों में देखने में बहुत आनन्द आ रहा था। आखिर उसी को अपनी नजरें झुका लेनी पड़ी और फिर वह तुरन्त चली गयी। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी सारी ताकत समाप्त हो गयी हो। लहरी साहब तब तक आये नहीं थे। मेरा मन अब पढ़ने में लगने का प्रश्न ही नहीं था। अतः मैं भी उसी समय घर चला गया।
मुझे उस अनुभव में इतना आनन्द आया था कि मेरी इच्छा होती थी कि उसकी आँखों में आँखें डालकर ही बैठा रहूँ। बाद में कई बार जब हम दोनों में मामूली सी भी बहस हो जाती थी तो मैं उससे आँखंे मिलाने की कोशिश करता था, लेकिन वह तुरन्त अपनी नजरें हटा लेती थी। बाद में मुझे वैसा मौका कभी नहीं मिला। लेकिन कल्पना मुझे तंग करने और मेरा मजाक बनाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देती थी। ऐसे ही एक दिन जब उसकी शरारतों से तंग आकर मैंने कहा था- ‘कल्पना, अब तुम बहुत शरारतें करने लगी हो’, तो वह आँखें नचाती हुई बोली थी- ‘संगत का असर है।’
इसी तरह के खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ हमारा समय गुजर रहा था। अब हमारा एम.स्टेट. का कोर्स पूरा होने को था। मुझे चिन्ता होती थी कि कल्पना का साथ छूट जाने पर मेरा मन कैसे लगेगा। एक बार मैंने उससे मजाक में कहा- ‘कल्पना, चलो इस बार हम दोनों फेल हो जायें, जिससे हम एक साल और साथ-साथ पढ़ लेंगे।’ लेकिन उसने इसे बकवास बताकर मना कर दिया।
कल्पना से मैं आखिरी बार तब मिला था, जब हम अपनी प्रोजेक्ट की मौखिक परीक्षा देने गये थे। उस दिन मैंने उसे दो गुलाब के फूल दिये थे, जिन्हें उसने शायद मेरा मन रखने के लिए स्वीकार कर लिया था। मेरी मौखिक परीक्षा सबके बाद थी, फिर भी वे दोनों बैठे रहे थे। परीक्षा समाप्त होने के बाद ही हम अपने-अपने घर गये थे।
उसके बाद मैं दिल्ली पढ़ने चला गया। वहाँ से मैंने उसे एक पत्र लिखा था जिसमें मैंने उससे उसके कुल अंक पूछे थे और कुछ सामान्य बातें भी लिखी थीं। मेरे विचार से उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे आपत्तिजनक कहा जा सके। लेकिन जाने क्यों उसने जबाब देना तो दूर रहा, मेरे पत्र को ही ज्यों का त्यों वापस कर दिया। उसके इस कार्य से मुझे काफी दुःख हुआ, फिर भी मैंने उसे सहन कर लिया।
इस घटना के बाद कल्पना मुझे एक-दो बार आगरा में दिखाई पड़ी। लेकिन मैंने जानबूझकर उससे बातें नहीं कीं। मैं जानता था कि मैं उसके प्रति अन्याय कर रहा हूँ। लेकिन मैं नाराज इसलिए था कि उसने मुझे गलत समझा। बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि उसने किसी व्यापारी लड़के से शादी कर ली है। आजकल वह शायद आगरा में ही है। मुझे अभी भी उसकी बहुत याद आती है। वह मेरी समस्त सहपाठिनियों में अकेली थी, जिसकी मैं सच्चे दिल से इज्जत करता था और शायद प्यार भी करता था। दिल्ली में पढ़ते हुए मैंने उसके ऊपर एक कविता भी लिखी थी, जिसे यहाँ देने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ-
तुम एक कुड़ी थीं
फिर भी तुम कुड़ियों से कितनी अलग थीं।
तुम वह तालाब नहीं
जिसमें
कोई भी जाकर डुबकी लगा लेता है,
जो
तुम्हारे दिल की
गहराइयों की थाह पा सके,
ऐसा कोई गोताखोर नहीं।
तुम्हारे चेहरे की एक झलक
और
मोती से दाँतों की चमक
से घायल होकर
मैं
तुम्हारी खनकती हुई हँसी में
डूबता चला गया।
लेकिन
समय के तूफान ने
मुझे किनारे पर लाकर पटक दिया
तुमसे दूर … बहुत दूर
जहाँ से लौटना बहुत मुश्किल है!!
कल्पना जैसी सहपाठिनी को पाकर मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानता था, क्योंकि उसी इंस्टीट्यूट में बहुत से लड़के उसके मुँह से दो शब्द सुनने के लिए भी तरसा करते थे।
(जारी…)
सारा लेख पढ़ गया. रोचकता और कुछ रहस्य बना रहा. सोचा कि क्या यह आपका प्रारब्ध था या क्रियमाण कर्म थे? दोनों ही हो सकते हैं। इस लेखमाला के माध्यम से हमें अपने जीवन में शामिल करने के लिए धन्यवाद।
आभार, महोदय ! यह प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों का परिणाम हो सकता है. वैसे मेरा मानना है कि केवल भाग्य कुछ नहीं होता. हमारा आज का कर्म ही कल हमारा भाग्य बनता है. हालांकि प्रभु की कृपा ही सर्वोपरि है.
विजय भाई , आप की जिंदगी में की हुई मिहनत को सलाम , और जो आप ने अपनी सह्पाथ्न कल्पना के बारे में लिखा वोह आप कभी भूल नहीं सकेंगे , ऐसा मेरा यकीन है किओंकि बचपन में मिडल सकूल में मेरी भी एक सह्पाथ्न थी जिस का नाम था बिमला . हालांकि उस समय लड़किओं से बात करने की इतनी खुल नहीं थी लेकिन बिमला मेरे साथ बातें बहुत किया करती थी . वोह बहुत अच्छी , पड़ने में हुशिआर और गाने में निपुण थी और मेरा शौक भी गाने में बहुत होता था . बहुत दफा वोह जिद करके अनारकली का एक गीत मुझ से सुनती . उस की शादी बहुत जल्दी हो गई थी और जब मेरी शादी हुई तो उस के दो बेटे थे . और वोह भी इंग्लैण्ड आ गई थी लेकिन कभी मिलना नहीं हुआ . लेकिन उनकी वोह इनोसेंट बातें हमेशा याद आती हैं .
आभार भाई साहब. बचपन की यादें बहुत मीठी होती हैं. लगभग सभी के साथ ऐसा होता है. बस नाम अलग हो सकता है.