वर्तमान धारावाहिक और समाज में प्रासंगिकता
हमारा एक भी दिन शायद ही ऐसा होता है। जब हम अपने को टी.वी. के समक्ष बैठा हुआ न पाऐ। अपनी व्यस्ततम जिंदगी में टी.वी. भी हमारा महत्वपूर्ण हिस्सा है और गाहे-वगाहे, प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष इस से हमारे मनोमस्तिष्क को प्रभावित करता है हमारी भावनाओं, संवेदनाओं को अपनी तरह से शिथिल, आंदोलित व संचालित करता है।
संचार माध्यमों का अतिरिक्त केन्द्र प्रचार-प्रसार साधनों की भरमार व विभिन्न चैनलों का नित नये कार्यक्रमों को प्रसारित करने और टी.आर.पी. बढ़ाने जैसी बाजारी प्रक्रिया का दौर और येन-केन प्रकरेण आगे बढ़ने की होड़, उचित अनुचित का ख्याल करने और हमारी समाज में सकारात्मक भूमिका निर्वाह करने के बारे में सोचने का मौका ही कहाॅं दे पा रही है। हम बिना सोचे-समझे व्यर्थ निरर्वक, अश्लील, अभद्र, निम्न स्तरीय और सस्ता और उद्देश्यहीन परोसे जा रहे हैं नैतिक मूल्यों को ताक पर रखकर।
शहरों में ही नहीं, गाॅंवों में भी आज नई तकनीकों का बहुत प्रसार-प्रचार हो गया है। वे सब भी शहरी सभ्यता के अनुकरण के साथ-साथ शहरी सांस्कृतिक अपदूषण व विकृतियाॅं भी अपना रहे है। गाॅंव जहाॅं हमारी गौरवशाली सभ्यता, परंपराऐं, मूल्य, विरासत, संस्कृति आज भी सुरक्षित मानी जा सकती है। वहाॅं भी इन प्रचार-प्रसार साधनों द्वारा सांस्कृतिक प्रदूषण और अनैतिकता फैल रही है। मानवीय, नैतिक मूल्यों संस्कृति सभ्यता की जड़े कमजोर की जाने की साजिश शुरू है। और निरंतर बढ रही है। ग्लोबलाइजेशन का नारा लगाते हुए हम खुद को जितना आधुनिक समझ रहे है। उतना ही अपनी जड़ो को काटकर पिछड रहे है। व हवाओं में तैर रहे है, कहा गया है ‘न घर के न घाट के’.
वर्तमान धारावाहिकों पर अगर नजर डाले तो सारे धारावाहिक एक से रंग में रंगे है। सास-बहू की नुक्ताचीनी, औरतों में कटुता, द्वेष, कलह- क्लेश, फैशन की होड, शान शौकत का प्रदर्शन, नकारात्मक वृत्तियाॅं, सस्ती चालू निम्न स्तरीय भाषा व सोच।
इसके अतिरिक्त इन धारावाहिकों में वैवाहिक संबंधों में पे्रम, वफादारी, परस्पर आदर- सम्मान, समझदारी, धार्मिकता की जगह पर अहंकार, कूटनीति, ईष्र्या, द्वेष, बदला, बेवफाई, विवाहेतर संबंध को ही बढावा मिल रहा है। जबकि ये प्रवृत्तियाॅं प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध है व समाज में नकारात्मक प्रभाव डालती है। ऐसे धारावाहिकों को परिवार के सदस्यों के साथ बैठकर देखने का क्या औचित्य व परिणाम है जो निरंतर गलत प्रवृत्तियों को प्रचारित कर रहे है, समाज को गलत दिशा में ले जा रहे है!
टीनएजर व युवा वर्ग जहाॅ फैशन परस्ती,मनमाना चालचलन, मेकओवर पार्टियाँ में अति उत्साही है वही त्याग, धार्मिकता, सहनशीलता व नैतिकता से कोसो दूर है, वहीं महिलाओ को भी ऐसे धारावाहिको से क्या रचनात्मक, मानसिक उन्नति में सहयोग मिलता हेै! इससे बेहतर ये समय वह अन्य रचनात्मक कार्यो व बच्चो के साथ बहुमूल्य समय बिताकर उनके व्यक्तित्व का विकास कर सकती है। उन्हे और अधिक संस्कावान बना सकती हैं जबकि महिलाऐं। व्यर्थ, सत्यता से परे धारावाहिकों को देखने और उन पर चर्चा करने में बिताती है बच्चों पर भी इसका दुष्यपरिणाम होता है। जब माॅं-बाप ऐसे धारावाहिकों को पसंद करते हैं तो बच्चे प्रत्यक्ष -प्रत्यक्ष रूप से उन्हीं बातों को ग्रहण करते है। उचित अनुचित का ख्याल किये बगैर।
पहले धारावाहिक रामायण, महाभारत, बुनियाद, भारत एक खोज, चाणक्य, फौजी, मनोरंजन, सर्कस, येे जो है जिंदगी, हम लोग, जिनमें कहीं न कहीं अपनी सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, महान पुरूषों की जीवन गाथा और नैतिक मूल्यों को प्रदर्शित किया गया। वहीं विक्रम-बेताल, साइंस फिक्शन, घुमता आईना, ऐसा भी होता है, दादा-दादी की कहानियाॅं, पचंतंत्र, गुलदस्ता, हमारी कलाऐं बड़ी सहजता व आकर्षक शैली में प्रस्तुत की जाती थी जो बच्चों के मनोरंजन के साथ उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति को भी शांत करती थी वहीं उनमें उच्च आदर्शाें व नैतिक मूल्यों, देशभक्ति के साथ ज्ञानवर्धक थी।!
पहले संचार साधनों और टीवी चैनलो का इतना विस्तार नहीं था कि विदेशी कूड़ा-करकट भी यहा आकर बस जाये! आजकल के युवक/युवतियाॅं दिग्भ्रमित होकर बिना सोचे समझे सबकुछ अपना रहें है। समाज में लगातार बढ़ती दुष्टप्रवृत्तियाॅं, घटनाऐं, अपराध के आंकड़े निरंतर सचेत कर रहे है कि हमारा समाज और युवावर्ग कितना प्रभावित हो रहा है। पहले मीडिया समाज में सकारात्मक योगदान देता था उच्चस्तरीय, धारावाहिकों व प्रोगामों के माध्यम से। आज सिर्फ बाजारी भेड़-जाल है मीडिया व टीवी चैनलों का कोई समाजिक सरोकार नही है वे सिर्फ अश्लीलता, फैशन, पेड-न्यूज, सस्ते व सच्चाई रहित शान- शौकत से भरपूर प्रोगाम परोस रहा है।
सच यही है आज समाज मे जो विसंगतियाॅं, रिश्तो-नातोें में बिखराव,दूरियाॅं, अधार्मिकता, घटते नैतिक मूल्य, अपनी सभ्यता, संस्कृति परंपराओं की अवमानना व उपहास, स्वार्थी वृत्तियाॅं, अनैतिकता, अपराधी अहंकारी वृत्तियाॅं पनप रही है ये सब इंगित करती है कि हमारा तथा कथित मीडिया और प्रचार-प्रसार माध्यमों द्वारा समाज में क्या परोसा जा रहा है वह किस हद तक प्रासंगिक, स्तरीय व उचित है बहुत सी पबुद्ध महिलाओं और महिला संगठनों ने इस तरह के धारावाहिकों का विरोध किया है।
आज शीला, रजिया, जलेबीबाई, मुन्नीबाई, डर्टी पिक्चर जैसे सस्ते और अश्लील गानों पर जितना खुश होकर नृत्य किया जाता है क्या उतना ही हमारे देशभक्ति गीतों पर नृत्य और देशभाषा हिन्दी बोलने में खुशी व गौरव का अनुभव होता है। आजकल के भारतीय युवक-युवतियों को मीडिया, फिल्म,धारावाहिक जो भी दिखा रहे है। ये उन्हें बिना सोचे समझे अपना रहे है। और ये सस्तापन बेचकर पैसा बना रहे है। क्यों नहीं ऐसे धारावाहिक बनें जो समाज का आईना हों, समाज में उपस्थित समस्याओं व प्रश्नों को मंच प्रदान करे व विभिन्न दृष्टिकोणों से परखते हुये समाधान प्रस्तुत करें। जो अपनी सभ्यता, संस्कृति, परंपराओं व गौरवशाली इतिहास को अक्षुण्ण व जीवंत रख सकें व हमारे महान पुरूषों की गौरवगाथाओं, हमारे प्रागएतिहासिक, धार्मिक, पर्यटन स्थलों के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान को आकर्षक रूप में प्रस्तुत कर सके जिनसे सभी वर्ग के दर्शकों के व्यक्तित्व का विकास हो, मानसिक योग्यता च देशभक्ति की भावना का विकास हो, उच्च आदर्शो की स्थापना हो। सभी वर्गो का स्वस्थ मनोरंजन होने के साथ सकारात्मक सोच व बौद्धिक विकास हो। धारावाहिकों के माध्यम से उच्च स्तरीय आदर्शो, मानव मूल्यों को स्थापित किया जाये ताकि हमारी भावी पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़े व गौरव महसूस करे। अनैतिकता, अंधानुकरण, अपराधों की ओर न मुडे़।
वर्तमान समय में जो धारावाहिक दिखाये जा रहे है अधिकतर निरर्थक समय की बरवादी व दिशाहीन, उद्देश्यहीन है जिनका समाज के कोई सरोकार नहीं हैं वे सिर्फ दर्शकों को मानसिक पंगु बना रहे हैं व समाज को दिशाहीन। बधाई के पात्र है ‘आमिर खान’ ‘सत्यमेव जंयते’ के लिये। यही वह धारावाहिक है जो व्यर्थ के फैशन परस्ती, झूठी शान शौकत, गासिप व दिखावा का जाल न बुनकर ठोस सच्चाइयों को बखूबी समाज के समक्ष रख रहा है। व उन पर विभिन्न पक्षों/दृष्टिकोणों के साथ समाधान के लिये प्रयासरत् है।
अनुपमा श्रीवास्तव, अनुश्री (भोपाल)
बहुत अच्छा लेख. आजकल के धारावाहिक केवल सस्पेंस बनाने के लिए घटनाओं को मनमाना मोड़ देते हैं. इनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है. ये समाज को पथभ्रष्ट कर रहे हैं,