सन्नाटे के घेरे में जरुरत भर ही आबाजें
इन कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो चलो ऐसा घर बनातें हैं
ना ही रोशनी आये ना खुशबु ही बिखर पाये
हालात देखकर घर की अब पक्षी भी लजातें हैं
दीबारें ही दीवारें नजर आये घरों में क्यों ?
पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं
ना जानें कब से गुम अब है मिलने का चलन यारों
हम टी बी और नेट से ही समय अपना बिताते हैं
ना दिल में ही जगह यारों ना घर में ही जगह यारों
अब भूले से भी मेहमाँ को नहीं घर में टिकाते हैं
अब सन्नाटे के घेरे में जरुरत भर ही आबाजें
घर में ,दिल की बात दिल में ही यारों अब दबातें हैं
ग़ज़ल ( जरुरत भर ही आबाजें)
मदन मोहन सक्सेना
वाह वाह ! बहुत खूब !!
अनेकानेक धन्यवाद सकारात्मक टिप्पणी हेतु.