एकांत में उसी गीत को
हवा गुनगुनाने लगी थी ..एक गीत ..
वह पहला गीत आज भी जंगल की खामोशी में
पत्तियों की हथेलियों पर अंकित है …
एक लहर हँस रही थी लड़की की तरह .
चट्टानों से लिपट कर झूम रही थी …
उसकी मुस्कुराहट का पीछा करते -करते …
सुबह से दौड़ती ..धुप थक गयी थी …
चांदनी रात की गोरी बांहों में
वह हँसीं ..समा गयी थी …..
और जंगल की कोख से ..
गाँव ने जन्म लिया था …
संगीत की तरह तब भी बह रही थी हवा
हवा के ओंठो से निकले ..
संगीत के सातों स्वरों को अलग -अलग गाँवो ने ..
अलग अलग सुनकर …
अपने गीत के लिये ..चुन लिया था ..एक -एक शब्द .-
शब्द मौसम मे घुलते रहे ..भाषाओ में बदलते रहे …
और ,… ,…मौसम बदलता रहा ..
हर पेड़ ..हर पत्तियों को ..
हर पत्थर ,हर आदमी का ,रूप निरंतर निखरता रहा ..
और फिर बन गया शहर
मीनारों ,दीवारों ,सड़कों से घिरा हुआ – शहर
बहुत पीछे छोड़ आया पेड़ की तरह नग्न शरीरो को ..
उन गीतों को -जिसे हवा ने सिखाया था आदमी को …..
और हवा हैरान है उपासको को सीढियों पर
भग्न मन्दिरों की तरह तितर -बितर पाकर
हवा की सांसो में आदमी ने जहर भर दिया है …
अब हवा लौट जाना चाहती है
जंगल के एकांत में उसी गीत को
सुनने के लिए -गाने के लिए
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत खूब !