यात्रा के तीर्थ तक
बंद मुट्ठी के भीतर ..मन को
पेपर वेट कीतरह ..दबा रहा हूँ
अपनी सघनता और अपने वजन का
जैसे अनुमान लगा रहा हूँ
फाइलों में छिपी आँखों को ..खिड़की के उस पार ..
खिले फूलो तक ..पहुँचाना चाह रहा हूँ …-
कुर्सी का कवर बन चुकी देह को ..
अब नई कमीज की तरह सिलवा रहा हूँ ..
शायद मै पेपर वेट ,फाइल या कुर्सी होने से बच जाऊँ …
चढ़ती हुई सीढियों से ..
अब उतर जाऊं ..छपे हुऐ नाम सा ..अख़बार में मै
सिर्फ कैद न रह जाउं
एक बार ही सही ..कोट की तरह शरीर से उतर कर ..
किसी के आंसू ..रुमाल सा पोंछ पाऊँ ….
और आंगन तक पहुंच आये ..दूबों से पूंछू ..
कुंवें मै रीस आये नये जल से जानूँ ..
बबूल या धतूरे के पेडो से ब्याकुल खेतो के बारे में …
सुई की नोंक से घायल कथरी को …
ओढे हुऐ लोगों के लेकर
..लौटती हुई ..ट्रेन के दर्दों ..के बारे मेँ …
क्या जिन्दगी सचमुच …एक असमाप्त रेल यात्रा तो नही …..
तो मुझे भी इस यात्रा के तीर्थ तक पहुंचना ही है ..
किशोर कुमार खोरेन्द्र
वाह !