नव आकर्षण नव नव वर्षण
नव आकर्षण नव नव वर्षण,
नव हर्ष धरा पर तुम भर दो;
चिन्तन चेतन अध्यात्म प्रखर,
हर मानव जीवन में फुर दो ।
नित आलोड़ित आत्मा उज्ज्वल,
हर जीव जन्तु में रस भर दो;
हों शान्त वनस्पति वायु अग्नि,
जल धरिणी में नभ स्वर भर दो ।
चित्तों में भित्ति ख़त्म कर दो,
ऊर्जित आल्ह्वादित जग कर दो;
सब तेज धरें धर प्रमा चलें,
भर पूर्ण पूर्णता ऊर्ध्व करो ।
आतंकित धरती तज शंका,
सुर शून्य भरे आलोक विधा;
हर पुष्प पुण्य संचार करे,
शोषित ना पृथ्वी का कण हो ।
अरुणेदय हर दिन हो शुभकर,
आप्लावित हो भक्ति त्रिभुवन;
‘मधु’ मय हो विश्व रूप दर्शन,
आच्छादित भूमा हो अणु मन ।
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा
बहुत सुन्दर कविता .