सबके हृदय में
मैंने अब तक स्वयम को देखा ही नही
पता नही
मेरा घर मेरे बारे मे क्या सोचता होगा
अशोक के पेडो को
या सूर्य-मुखी के पौधों को
मेरा इन्तजार होगा
मेरा शहर मुझे ढूंढता होगा
सड़कों पर
भीड़ मे
दफ्तर के उम्र कैद से छूटकर
बाहर आने पर
आज कहूँगा पत्नी से
पूछो मुझसे –
की मै तुम्हे कितना चाहता हू …?
कालेज को पता नही होगा
एक लड़के या
उन प्रेम कविताओ के बारे मे अब-तक
बरसों बाद मिले
पुराने मित्र की तरह
चौराहे पर खड़ा नीम
क्या …पूछेगा मुझसे
मेरा नाम
कहेगा कौन हो तुम
मै जूतों को
मोजों को उतार कर
अब नंगें पाँव चलना चाहता हूँ
रूमालों की की तरह छूटे हुए
अपनों से मिलना चाहता हूँ
पत्नी के हाथ मे रखी हुई चाय में
शक्कर की तरह घुल जाना चाहता हूँ
सबके हृदय में
शब्दों के सच सा
भर जाना चाहता हूँ
अपना असली चेहरा उन्हें
दिखलाना चाहता हूँ
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बढ़िया !
shukriya vijay ji