आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 24)
शहनाज की तरह ही मेरी एक और पत्र मित्र थी- टीना। उसका असली नाम था ‘मैरीना कोलाको’। वह ईसाई थी और बम्बई में रहती थी। उसने भी मुझे बहुत प्यार भरे पत्र लिखे थे। मेरी कविताओं पर वह बुरी तरह मरती थी। यद्यपि वह स्वयं अंग्रेजी लिखती-बोलती थी, लेकिन हिन्दी फिल्मों की कृपा से हिन्दी अच्छी तरह समझ लेती थी। वह बहुत अच्छी गायिका थी और प्रायः शौकिया प्रोग्राम दिया करती थी। उसका हस्तलेख बहुत सुन्दर था। वह पत्रों पर रंगबिरंगे फूल हाथ से बनाकर भेजा करती थी। साथ ही साधारण शब्दों में वह बहुत प्यार भरी बातें लिखा करती थी। उसके पत्र छोटे-छोटे होते थे, लेकिन मेरे ऊपर गहरा असर करते थे।
एक बार हम दोनों में किसी बात पर झगड़ा भी हुआ था। बात मामूली ही सी थी (और इस समय मुझे याद नहीं क्या थी), फिर भी उसने पत्र लिखना बन्द कर दिया। मैंने अपनी एक और पत्र-मित्र शिखा को टीना का परिचय और हमारी प्रगाढ़ होती मित्रता की जानकारी दे रखी थी। जब उसे मैंने झगड़े के बारे में लिखा, तो उसका जबाब आया कि प्यार करने वालों में ऐसा झगड़ा कम से कम एक बार अवश्य होता है और फिर खुद ही खत्म हो जाता है। उसकी भविष्यवाणी सत्य निकली और मेरे एक पत्र से पसीज कर ही टीना ने बहुत प्यारा पत्र लिख दिया। उस पत्र को मैंने कई बार पढ़ा और चूमा। उस दिन से मैं उसकी तरफ बहुत आकर्षित हो गया।
उसका एक छोटा सा फोटो मेरे पास था और आज भी है। वह अगर बहुत सुन्दर नहीं तो खराब भी नहीं लगती। उसकी आँखें बहुत सुन्दर हैं। कुल मिलाकर वह बहुत आकर्षक लगती है। अगर हम मात्र पत्र-मित्र न होकर आमने सामने होते तो मैं शायद पागल हो जाता। मैं उसे सपने में देखा करता था और वह भी ऐसा ही लिखती थी। उन्हीं दिनों शहनाज से मेरा पत्र व्यवहार बंद हुआ था। अतः मैं टीना की तरफ बहुत खिंच गया था।
उसके पचास-साठ पत्र मेरे पास आये। एक बार मैंने उसे लिखा कि मैं कल्पना करता हूँ कि हम दोनों बंधन में बंध गये हैं और मैं आफिस जाते समय तथा वापिस लौटकर उसे बाहों में भरकर चूम लेता हूँ। उसे यह पढ़कर बहुत मजा आया और उसने लिख दिया कि वह मेरी जीवन संगिनी बनकर स्वयं को धन्य मानेगी। उसने यह भी लिखा कि मैं जल्दी से कोई काम देख लूँ, ताकि हम दोनों की गुजर-बसर हो सके। तब मैंने गंभीरता से इस मामले पर सोचा और यही निश्चय किया कि पहले पढ़ाई पूरी करके कुछ बनना है, तभी शादी-वादी की बात सोची जा सकती है।
मेरे जबाब से वह कुछ निराश हुई, लेकिन जल्दी ही उसने सच्चाई महसूस कर ली। हमारा पत्र व्यवहार पूर्ववत् चलता रहा। मेरे जे.एन.यू. के कई दोस्तों को हमारी मित्रता के बारे में मालूम था और वे प्रायः मुझे ‘टीना’ का नाम लेकर छेड़ा करते थे।
अगले दो-तीन महीनों में ही उसने लिखा कि उसके पिता उस पर एक लड़के से शादी करने के लिए दबाब डाल रहे हैं। वैसे वह लड़का ठीक है, लेकिन वह मुझे ज्यादा चाहती है। मैंने लिखा कि तुम केवल दो साल मेरा इंतजार कर सको, तो कर लो, मैं तुम्हें अपनी जीवन संगिनी बनाकर अपना सौभाग्य मानूँगा। लेकिन उसने जबाब दिया कि वह पिताजी के वचन को नहीं टाल सकती और यह भी कि उसने उस लड़के से मिलना-जुलना शुरू कर दिया है। धीरे-धीरे उसके पत्र कम होने लगे। मैं वास्तविकता समझ गया, अतः मैंने भी उस पर जोर नहीं डाला। मैंने उसे अपनी शुभकामनाएं भी दीं।
शादी से पहले उसके एक दो पत्र और आये। मेरे सौभाग्य से उसने शहनाज की तरह अपना फोटो तथा पत्र वापिस नहीं माँगे। एक बार उसने अपने पत्रों को नष्ट कर देने के लिए कहा था और मैंने उसके प्रारम्भिक अठारह पत्र फाड़कर फेंक दिये थे। लेकिन उसके बाद के सारे पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। उसके फोटो को भी मैं कभी-कभी देखता रहता हूँ और उसके मासूम चेहरे पर अब मुझे और ज्यादा प्यार आता है। उसे एक बार मैंने उसी के ऊपर लिखी अपनी एक कविता भेजी थी, जो इस प्रकार थी-
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि
तुम क्या हो।
कभी तुम धधकता हुआ शोला हो, तो कभी शीतल समीर हो,
कभी तुम खिलखिलाती सुबह हो, तो कभी उदास शाम हो,
कभी तुम बहता हुआ दरिया हो, तो कभी ठहरा हुआ तालाब हो
कभी तुम तुम हो, तो कभी तुम तुम नहीं हो।
सच तो यह है कि
तुम्हें समझना बहुत मुश्किल है।
मेरी प्रियतमा,
तुम चाहे कुछ भी हो,
सिर्फ एक बार फिर से कह दो
कि तुम मेरी हो!
उसे यह कविता बहुत पसन्द आयी थी। उसने अंग्रेजी में लिखा था- क्या मैं समझ में आने में इतनी मुश्किल हूँ? हाँ, मैं कुछ मूडी हूँ! आज जब मैं टीना के बारे में लिखने बैठा हूँ, तो मेरा पेन दौड़ रहा है, रुकने का नाम नहीं ले रहा है और मेरा दिल कुछ जोर-जोर से धड़क रहा है।
ऊपर जिस शिखा का जिक्र मैंने किया है, वह भी मेरी एक घनिष्ट पत्र-मित्र थी। वह असम की रहने वाली थी। हम दोनों में काफी दिनों तक पत्र व्यवहार चलता रहा था। उसने अपने तीन चित्र मुझे भेजे थे, जबकि मैं केवल एक ही भेज पाया हूँ। यों वह मैदानी लड़कियों जैसी सुन्दर नहीं है, लेकिन मैं यह अवश्य कहूँगा कि पहाड़ी लड़कियों में उससे ज्यादा सुन्दर लड़कियाँ कम ही होंगी। इससे भी बढ़कर सुन्दर था उसका दिल। हर बात साफ-साफ और बुद्धिमानीपूर्ण करना उसकी विशेषता थी। यों मैं अपनी समस्त पत्र-मित्रों में अनी को सबसे ज्यादा होशियार और बुद्धिमान मानता हूँ तथा शहनाज को सबसे अच्छे स्वभाव वाली और समझदार, लेकिन शिखा में ये सारे ही गुण पर्याप्त मात्रा में थे। उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी, कम से कम मुझसे तो ज्यादा ही। यों उसके पत्र दो-तीन महीने में एक-दो ही आ पाते थे, लेकिन हर पत्र काफी लम्बा होता था।
मुझे शिखा के पत्र पढ़ना और उनका जबाव देना बहुत पसन्द था। मगर अफसोस समय के कारण हमारा पत्र व्यवहार बन्द हो गया। शायद उसकी कहीं शादी हो गयी हो। हर लड़की का आखिरी ‘कर्तव्य’ यही होता है। शिखा की मुझे आज भी बहुत याद आती है और उसके फोटो को मैं बहुत बार देखता रहता हूँ।
यदि मैं अपनी पत्र मित्रों में ‘प्रिया’ का जिक्र न करूँ तो यह उसके प्रति बहुत अन्याय होगा। वह पांडिचेरी की रहने वाली थी और उस समय शायद अर्थशास्त्र में एम.ए. कर रही थी। बाद में उसने शायद एलएल.बी. में दाखिला ले लिया था। हम दोनों का सम्बन्ध यद्यपि उतना जोशीला (Warm) नहीं था जितना मेरी उन पत्र मित्रों का जिनका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूँ। फिर भी हमारा पत्र व्यवहार लम्बे समय तक चलता रहा। मेरी अधिकांश मित्रों की तरह उसके पत्र भी मेरे पास रखे हुए हैं। उसकी एक पत्र मित्र श्रीलंका में थी, जहाँ से उसे एक डाक टिकट मिल जाते हैं। उनमें से कई डाक टिकट प्रिया ने मुझे भेजे थे, जो अभी भी मेरे संग्रह में हैं।
इनके अलावा मेरी और भी कई पत्र मित्र रही हैं। उनमें से कुछ के नाम हैं – शर्मिला सिंघा उर्फ मुनमुन (कानपुर), रूही मराक (मेघालय), बिटू बोरा (गौहाटी), अंजली गुप्ता (बम्बई), बेबी विश्वास (अरूणाचल प्रदेश)। मुनमुन के कुल जमा तीन पत्र मेरे पास हैं और उसका प्रत्येक पत्र स्वयं मैं एक नमूना है। उसकी पत्र लिखने की स्टाइल मेरे समस्त मित्रों में सबसे अच्छी थी। इसे मैं अपना दुर्भाग्य ही कहूँगा कि केवल तीन पत्रों के बाद उसने मुझे लिखना बन्द कर दिया। कारण की मुझे आज भी तलाश है। रूही, बिटू और अंजली के साथ भी मेरा पत्र व्यवहार क्षणिक रहा। लेकिन मैं इनके दो-तीन पत्रों से ही काफी प्रभावित हुआ था। बेबी विश्वास ने मुझे अपना भाई माना है, लगभग प्रत्येक वर्ष उसकी राखी मुझे मिलती रही है। आजकल यद्यपि उसके पत्र आने लगभग बन्द हो गये हैं, लेकिन वह मुझे भूली नहीं होगी, इसका मुझे विश्वास है।
सुशील कुमार अग्रवाल, कायमगंज, जिला फर्रुखाबाद निवासी, के साथ मेरी मित्रता बहुत लम्बी चली। उनके कोई बहिन नहीं है, अतः मेरी बहिन गीता को ही उन्होंने अपनी बहिन बनाया था। गीता ने कई बार उन्हें राखी भी भेजी थी। इधर कुछ वर्षों से उनका पत्र आना बिल्कुल बन्द है। कारण जो भी रहा हो। सुशील की मुझे आज भी बहुत याद आती है। पत्र व्यवहार बंद होने के बाद मैं उन्हें कई बार स्वयं लिख चुका हूँ, लेकिन जबाब आज तक नहीं आया।
श्री नलिन अवस्थी, कानपुर निवासी मेरे घनिष्टतम पत्र मित्रों में से एक रहे है। आप भविष्य निधि आयुक्त के कार्यालय में प्राप्ति विभाग में लिपिक हैं। उनके पास सैकड़ों पत्र आते रहते हैं और उन पर लगे हुए टिकट भी। उन्होंने ऐसे सैकड़ों टिकट मेरे लिए रखकर भेजे हैं। मेरे डाकटिकट संग्रह का एक बहुत बड़ा भाग उनकी ही देन है। दुर्भाग्य से मेरी अभी तक उनसे आमने-सामने की मुलाकात नहीं हो सकी है। कई बार कानपुर जाने पर उनसे मिलने की इच्छा होती है लेकिन हर बार कोई न कोई कारण पैदा हो जाता है। मुझे विश्वास है कि निकट भविष्य में मेरी आकांक्षा अवश्य पूर्ण होगी।
(पादटीप : श्री नलिन अवस्थी से मैं कानपुर में दो बार मिल चुका हूँ. वे अभी भी उसी विभाग में नौकरी कर रहे हैं.)
(जारी…)
विजय भाई , आप की साफगोई बहुत पसंद करता हूँ . आम लेखक ऐसा कर नहीं पाते जिस से असलीअत छुप जाती है . एक जीवन कथा खुशवंत सिंह की पड़ी थी , वोह भी बहुत अच्छी लगी थी . जो आप ने लिखा है बहुत कम लोग ऐसा कर पाते हैं . यह जिंदगी भी अजीब है , पता नहीं कितने लोग आये और कभी मिले ही नहीं , जो मिले ऐसे मिले कि इंसान सोच भी नहीं सकता . एक पार्क में मैं जॉगिंग के लिए जाया करता था . पार्क के गिर्द एक चक्कर लगाने से एक किलोमीटर हो जाता था . दुसरी और से एक सिंह जी भी जॉगिंग करते थे . जब हम चक्कर लगा कर सामने से मिलते तो समाइल करके आगे बड़ते जाते . इसी तरह तकरीबन तीन महीने दौड़ते रहे . एक दिन मैंने सिंह जी को खड़े होने के लिए कहा तो मैंने बोला भाई साहब हम दौड़ते तो दोनों हैं किओं न हम इकठे एक तरफ दौड़ें ! उस ने कहा , हाँ जी यह तो बहुत अच्छी बात है . जब हम दौड़ने लगे तो वोह बोला , अगर आप बुरा न मनाएं तो किया पूछ सकता हूँ कि तुमारा नाम गुरमेल तो नहीं है ? मैं खड़ा हो गिया और उस की और देखने लगा लेकिन पेहचान न सका . फिर वोह कहने लगा , मेरा नाम जोगिन्दर सिंह है , याद है ! हम एक डैस्क पर ही बैठा करते थे ! फिर मैंने पैचान लिया और गले लग गए . यह जिंदगी भी अजीब है .
धन्यवाद, भाई साहब ! आपकी बात पढ़कर भी आनंद आया. पुराने दोस्तों से बहुत दिन बाद मिलना भी एक अच्छा अनुभव होता है.
आपकी आत्मकथा की इस किश्त से आपके जीवन का यह भाग जाना। शेष की प्रतीक्षा है। मनुष्य जीवन अनमोल है और इसमें भी भिन्न भिन्न प्रकृति के स्त्री वा पुरुष परमात्मा ने बनायें है। कई बार यह संसार एक रंग मंच सा लगता है। परन्तु जब सम्भीर होते है तो वेदो वा वैदिक साहित्य के धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के सिद्धांत ही प्रबल तर्क सांगत लगते हैं।
आभार, मन मोहन जी. सही कहते हैं आप. जीवन यात्रा में बहुत से सहयात्री मिलते हैं और कोई कम तो कोई अधिक साथ चलकर दूसरे रस्ते पर निकल जाते हैं. यही जीवन का सत्य है, बाकी सब मिथ्या है.