चिन्तन- मनन
चिन्तन का अर्थ है सोचना विचारना। किसी सुने हुए,पढे़ हुए या विचारणीय विषय पर एकान्त स्थान में बैठकर गम्भीर विचार करना मनन है। मननशीलता का गुण इसमें होने के कारण मानव मनुष्य कहलाता है। जैसा मन का स्वभाव या गुण होता है वैसा है वैसा ही मनुष्य होता है। मन आत्मा का सर्वोपरि साधन है। मन का कार्य है आत्मा से प्राप्त संदेशों को क्रियान्वित कराने का संकल्प करना। यह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से उहापोह कराकर उन्हे कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। मन की गुणवत्ता पर ही मनुष्यपन निर्भर करता है अन्यथा पतित मन होने पर उसका व्यवहार पशुवत हो जाता है। हमारे अन्तःकरण के अन्तर्गत मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार हैं। कार्य के विभाजन को देखते हुए मन और चित्त भिन्न-भिन्न हैं। चित्त का काम चिन्तन करना है और मन का काम मनन करना है। चिन्तन चित्त में होने के कारण उसके साथ बुद्धि का समावेश रहता है। शास्त्रों में बुद्धि को निश्चयात्मक बताया गया है। इस गुण के कारण यह किसी भी विषय का निश्चय करा देती है। चिन्तन निर्विकल्प स्थिति है जो ज्ञानपूर्वक होती है। आध्यात्मिक जगत में केवल आत्मा और परमात्मा का चिन्तन होता है, किसी अन्य विषय का नहीं।
मनुष्य ज्ञानरहित अवस्था में ही चिन्ता करता है। वेद में कहा गया है कि मनुष्य चिन्ता न करें क्योंकि यह हमें पतन की ओर ले जाकर हानि पहुंचाती है। शास्त्रों में चिन्ता और चिता पर विचार करते हुए बताया गया है कि मनुष्य चिन्ता करके चिता में पहुंच जाता है परन्तु यदि वह चित्त में चिन्तन करे तो परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। चिन्तन साधना की प्रारम्भिक अवस्था है। वह अपने चित्त को योग साधना से बाहरी कार्यों और विषयों से हटाकर अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध कर लेता है। इस स्थिति को गीता में कामनाओं से रहित होकर योगनिष्ठ होना बताया गया है। ऐसा योगनिष्ठ साधक आत्मानन्द का अनुभव प्राप्त करते हुए अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। मन को वेद में हृत-प्रतिष्ठ बताया गया है अर्थात मन हृदय में स्थित है, मष्तिष्क में नहीं। आत्मा को सुसारथि बताया गया है जो चिन्तन-मनन के विवेक से सम्पन्न होकर जीवन रुपी रथ का संचालन करता है।
अंतःकरण चतुष्टय में मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार आते है। चित्त आत्मा को ही कहा गया है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। चिंतन मनन आत्मा और मन दोनों मिलकर करते हैं। आत्मा बिना मन के और मन बिना आत्मा के न चिंतन और न मनन कर सकते है। क्या मैं ठीक हूँ? लेख अच्छा है, साधुवाद।