यही है जीवन
पता नहीं ..
कहाँ से आ गए
विरह के तम में
मिलन की ज्योति के
कुछ किरण
जिसके कारण
यह बंधन भी लगता हैं
हमारे पास रह जाए आजीवन
जानते हैं सत्य हैं
देह का विघटन
फिर भी
हम स्वयं को बीज सा
बों -बों..कर
बार बार
इस जहां में करते हैं विचरण
धूप और रंग का
पंखुरियों में पातें हैं सुन्दर मिश्रण
खिल जाता हैं फिर
मन में एक उपवन
अतीत का
हो जाता हैं विस्मरण
पल पल के वर्तमान में
होते रहता हैं
हम सबका युग अतीत पुनर्जन्म
हां यही है जीवन
kishor kumar khorendra
किशोर जी उम्दा रचना …
shukriya bahut
वाह !
dhnyvaad bahut